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भवगान् भी आपत्ति के समय केवल उसी का आश्रय लेते हैं । शुद्ध विद्रूप रत्न की वह मजूपा है उसका भार अल्प है एव मूल्य श्रधिक है । अत उस रत्न मजूषा को वे सदा साथ रखते है । उससे अज्ञान, दारिद्र एवं मिथ्यत्वा कोट सदा के लिए विचूरिंगत हो जाता है । पुन. दु.ख दुर्भाग्य आदि का भी स्पर्श नही हो सकता है। दुख दुर्गति से विचलित लोगो को हमेशा मुख सौभाग्य को अर्पित करने वाला रत्न पिटक श्री नमस्कार मन्त्र है । उसमे मबसे अधिक मूल्यवान शुद्ध चिद्रूप रत्न निहित होने से सम्यक् ज्ञानी एव सम्यक् दृष्टि जीव उसे अपने प्रारणो से भी अधिक प्यारा मानते हैं | उसके मिलन े के पश्चात् दुःख दुर्गति नष्ट होने का परम सन्तोष, परम घृति का अनुभव होता है । सर्वजवारणी के मंथन से प्राप्त श्री नमस्कार मन्त्र की श्रद्धा परम वृति को प्रदान करती है, यह घृति धारण को प्रकट करती है, ध्यान को स्थिर करती है एव चित्र समाधि के परम सुख का अनुभव कराती है ।
ज्ञानादि से एकता एवं रागादि से भिन्नता
श्री नमस्कार मन्त्र द्वारा ज्ञानादि से एकता एवं रागादि से भिन्नता का अनुभव होता है, जिससे उपयोग मे एकतारूप ज्ञान एवं रागादि से भिन्नतारूप वैराग्य युक्त शुद्धात्मा का अनुभव होता है । उस अनुभव मे रागादि से भेद का ज्ञान ही सवर है एवं ज्ञानादि से भेद का ज्ञान पूर्व कर्म का निजरा करवाता है । इस प्रकार नमस्कार मन्त्र सवर-निर्जरा की दशा प्राप्त करवान े वाला होने से उसमें तन्मयता परमानन्द रूपी मोक्ष का परम उपाय है। ऐसा सम्यक् दर्शन होते ही आत्मा मे आनन्द की अनुभूति एवं सवर निर्जरा का प्राप्ति का आरम्भ हो जाता है | ज्ञान चेतना रागादि से भिन्न है । जिस प्रकार