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खोजने योग्य, करने योग्य, कहने योग्य, व्यान करने योग्य अथवा श्रेय रूप से ग्रहण करने योग्य है ही नही, यही वास्तव आश्चर्य है ।
श्री सर्वज्ञ भगवान् की वारणी ने जिसकी महिमा गायी है, प्राप्त करने योग्य, बोलने
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योग्य, आदर
जो वस्तु जानने योग्य, देखने योग्य योग्य, करने योग्य, ध्यान करने योग्य, सुनने योग्य एव प्रीतियोग्य है वह केवल शुद्ध चिद्रूप रत्न ही है । ज्ञान चेतना के स्थिर होने से मिलने वाला श्रेय परमानन्द है, अत उसकी प्राप्ति के लिए ही सब प्रकार के प्रत्यन करने चाहिये, उसकी प्राप्ति से ही कृत कृत्यता का अनुभव करना चाहिये । यही शुद्ध चिद्रूप रत्न नमस्कार मन्त्र का ज्ञेय एव ध्येय है, श्री पच परमेष्ठि भगवान इस शुद्ध चिद्रूप रत्न को प्राप्त कर चुके हैं । अत वे श्रीमान बार-बार नमनीय हैं, पूजनीय है, सेवनीय हैं, ग्रादरणीय हैं एवं सब प्रकार से सम्माननीय जीव हैं । श्री नमस्कार मन्त्र के स्मरण से, जाप से, श्री पच परमेष्ठि भगवान् मे निहित शुद्ध चिद्रपरत्न का ही स्मरण, जाप एव ध्यान होता है, उसके द्वारा अपने शुद्ध चिद्रूप आत्मरत्न में ही तन्मयता होने से उनका ध्यान परम आलम्वन रूप है, यही श्री नमस्कार द्वीप है, दीप है, त्रारण है, शररण है, गति है एवं प्रतिष्ठान है । उन सबका एक ही अर्थ है कि त्रिकाल मे एवं त्रिलोक मे शुद्ध चिद्र ूप रत्न यही है, द्वीप, दीप, त्रारण, शरण, गति एव परम प्रतिष्ठान है । उसमे त्रिकरण योग से लीन होना ही परम पुरुषार्थ है । उससे रागद्वेषादि भावो का विसर्जन होता है एव ज्ञानादि भावो का सेवन होता है, साथ ही सांयोगिक भाव से पर वनकर सांयोगिक आत्मभावो मे स्थिर हुआ जाता है । शुद्ध चिद्रूप श्रात्मरत्न ही एक मात्र व्येय है, ऐसी श्रद्धा सुदृढ बनती है, जिसको सुदृढ बनाने का परम उपाय श्री पच परमेष्ठि नमस्कार है । इसी से श्रुत केवली