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एवं परब्रह्म शुद्धज्ञान स्वरूप है क्योंकि उसमें विशुद्धज्ञान ही है एव उसके अतिरिक्त दूसरे कोई भाव समाविष्ट नही हैं । वही शुद्ध पर ब्रह्म स्वरूप ही उपास्य है, पूज्य है एव आराध्य है । इसके अतिरिक्त दूसरा स्वरूप ग्रनुपास्य, अपूज्य एवं प्रसेव्य है, यह जैन सिद्धान्त है । सेव्य भाव का अवच्छेदक वीतरागत्व श्रादि गुणवत्व है । वीतरागत्व सर्वज्ञत्व के साथ व्याप्त है । श्रत वीतराग एव सर्वज्ञ जैसे निर्दोषकेवलज्ञानस्वरूप की उपासना ही परमपद की प्राप्ति का बीज है ।
कृतज्ञता एवं स्वतन्त्रता
'नमो' कृतज्ञता का मन्त्र है एव स्वतन्त्रता का भी । कृतज्ञता गुरण व्यवहार धर्म का आधार स्तम्भ है एव स्वतन्त्रता गुण निश्चय धर्म का मूल है । श्रात्म द्रव्य श्रनादि कर्म सम्बद्ध होते हुए भी कर्म द्रव्य एव आत्म द्रव्य कथचित् भिन्न है । आत्मा एवं कर्म का सयोग सम्वन्ध है तथा इसका श्रन्त वियोग मे होता है । कर्म सम्बन्ध का आदि भी है तथा अन्त भी । आत्म द्रव्य अनादि अनन्त है । श्रात्म द्रव्य की स्वतन्त्रता का अनुभव कर जगत को बताने वाले श्री तीर्थंकर भगवान् श्रनन्त उपकारी है । उनके उपकार को उनके प्रति नित्य श्राभार वृत्ति रख उस उपकार का वदला चुकाने में अपने सामर्थ्य को निरन्तर स्वीकार करना ही व्यवहार धर्म का मूल है और यही निश्चय धर्म प्राप्त करने की सच्ची योग्यता है । कृतज्ञता गुरण के पालन द्वारा 'नमो' मन्त्र की उपासना स्वतन्त्रता की तरफ ले जाने वाली सिद्ध प्रक्रिया है इसलिए 'नमो' मन्त्र को सेतु से भी उपमित किया जा सकता है । श्री नमस्कार मन्त्र भवसागरतरण हेतु तथा मोक्षनगर पहुँचने हेतु सेतु का काम करता है, अर्थात् वह व्यक्त
हृदय में धारण कर