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प्रति अभिरुचि प्रकट होती है । जहाँ रुचि वही पराक्रम प्रवृत्त होता है । भाव द्वारा उत्पन्न रुचि मे ही सामर्थ्य है कि वह आत्मा की शक्ति एव वीर्य को परमात्म भाव की ओर मोड दे । भाव की उत्पत्ति ज्ञान से होती है पर जान स्वय भाव स्वरूप नही । भाव मे ज्ञान तो है ही पर उससे भाव के कुछ अधिक होने से ही वह पूज्य है । भाव शून्य ज्ञान का मूल्य कोडी भी नही। अल्पज्ञान से समन्वित शुद्ध भाव का मूल्य अगणित है । परमात्मा चिन्मय ज्ञानानन्दमय है, अत वह भाव ग्राह्य है । सर्वभावो मे श्रेष्ठभाव श्री नमस्कार का भाव है । नमस्कार भाव मे नमस्कार्य के प्रति सर्वस्व का दान एव सर्वस्व का समर्पण होता है जिससे उसका फल अगणित, अचिन्त्य एव अप्रमेय होता है। सर्वपापो को भेदित करने के लिए वह समर्थ है एव सर्वमगलो को आकर्षित करने मे वह अमोघ है।
अनाहत भाव का सामर्थ्य
अनाहत के आलेखन मे तीन वलय है जो भाव सम्बन्धी माने जाते हैं अर्थात् वे उत्तरोत्तर भाव वृद्धि के सूचक है । आगम का सार नमो भाव है । मन्त्र का मार अनाहत है । नमो भाव समता की वृद्धि करता है और यह समता अनाहत है। उसे सूचित (इगित) करने के लिए तीन वलयो का पालेखन होता है। अनाहत एक प्रकार की ध्वनि भी है जो निधि संचालित होती है यही बताने के लिए उसका चित्रण वर्तुल से न कर कमान से किया जाता है अर्थात् आसक्ति से अनासक्ति एव व्यष्टि से समष्टि की तरफ जाने के लिए भाव ही समर्थ है। केवल क्रिया या जान मे वह सामर्थ्य नही । भाव जव तक विश्वव्यापी नही बनता है तब तक पाहत होता है जब वह सर्वव्यापी बनता है तव अनाहत होता है। ज्ञान व क्रिया का