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करवाती है तथा जीवन मे सारल्य भाव प्रकटाती है, और सरलता ही मोक्ष मार्ग की प्रथम शर्त है। जैसे वालक अनानी है पर वह माता-पिता के शरण मे रहता है तो वह ज्ञानी भी होता है तथा सुखी भी। परन्तु जो बालक अज्ञान के साथ ही हठधर्मिता रखता है तथा ज्ञानी की शरण मे जाने को तैयार नही होता है, वह ज्यो-ज्यो वडा होता है त्यो त्यो अधिक आपत्तियो मे आ गिरता है । इसी प्रकार मोक्षमार्ग मे भी अजान क्षम्य है पर उसका अभिनिवेश अक्षम्य है। नमो मन्त्र उस अभिनिवेश को टाल देता है । नमो मन्त्र नम्रता को विकसित करता है। नमो मन्त्र द्वारा की ज्ञानियो की पराधीनता स्वीकृत की जाती है ।
नम्रता एवं अधीनता ज्ञान से अज्ञान टलता है, वह बात सच्ची है फिर भी जब तक अधूरा ज्ञान होता है तव तक उसका भी अहकार होना सम्भव है । इसीलिए जब तक ज्ञान पूर्ण नही हो जाय तब तक नम्रता परमावश्यक है । 'नमो' मन्त्र अपने लघुभाव को मदा टिकाकर रखता है तथा इसी लघुभाव के प्रभाव से एक न एक दिन जीव पूर्ण दशा को प्राप्त कर सकता है। ज्ञान जब तक अपूर्ण है तब तक पूर्ण जानी की पराधीनता जीव को आगे बढाने में सहायक बन सकती है । ज्ञानी के प्रति नम्रता तथा ज्ञानी की आज्ञा के प्रति पराधीनता प्रत्येक छद्मस्थ का प्रथम धर्म है । जिसको नमस्कार किया जाता है, उसकी उच्चता तथा स्वय की लघुता का भाव पूर्ण रूप से टिकाकर रखने के लिए योग्य को नमन करने की परम अावश्यकता है । बारम्बार का नमस्कार नम्रता तथा योग्य की पराधीनता को पुष्ट करता है। जिसके प्रति हम नम्र तथा प्राधीन वनते हैं, वे अपने हित के लिए क्या कहते है यह जानने की प्रथम जिज्ञासा जाग्रत होती है