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फल परिमित है, पर भाव का फल अपरिमित है वह अनाहत का आलेखन करता है। भाव मे समर्पण तथा सम्बन्ध है इसीलिए वह पूज्य है। पूज्यता का अवच्छेदक दान है परन्तु ग्रहण नहीं। समताभाव का दान ही सर्वोत्कृष्ट दान है। समता भाव सभी के लिए समान भाव धारण करना होता है । अतः वह अनाहत है।
नमस्कार प्रथम धर्म क्यों जनगमो का प्रथम सूत्र श्री पचमगल यान नमस्कार सूत्र है । उसका पहला पद 'नमो' है। यह नमस्कार क्रिया के अर्थ मे व्याकरण मान्य अव्ययपद है जिसका अर्थ है मैं नमस्कार करता हू । 'इसीलिए नमो अरिहतारण' का वाच्यार्थ है "मैं अरिहत परमात्मानो को नमस्कार करता हू" । यहाँ नमो पद को प्रथम रखकर बताया गया है कि नमस्कार प्रथम धर्म है । धर्म की ओर प्रयाण करने हेतु नमस्कार ही मूलभूत मौलिक वस्तु है । नमस्कार से शुभ भाव जाग्रत होते है, शुभ भाव से कर्मक्षय एव कार्यक्षय से सकल कल्याण की सिद्धि होती है ।
मिथ्याभिनिवेश का परम औषध
जीव काससार परिभ्रमण अज्ञान के कारण है एव मिथ्यात्व उसकी पुष्टि करता है । अज्ञानी होते हुए भी मैं समझदार हूँ, एव में ज्ञानी हूँ ऐसे मिथ्याभिमान का ही दूसरा नाम मिथ्यात्व है । अज्ञानी होते हुए भी ज्ञानी की शरण में नही जाना ही मिथ्याभिनिवेश है। इसके कारण अज्ञानता का दोष टलता नही, उलटा दृढ होता है। नमस्कार मत्र मिथ्याभिनिवेश का औषध है । नमस्कार मे ऐसी स्वीकारोक्ति है कि मैं अज्ञानी हू । यह स्वीकारोक्ति अज्ञानी की गर्दी करवाती है, ज्ञानी की स्तुति