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सकोच के अर्थ में है । द्रव्य संकोच शरीर सबधी है एवं भाव सकोच मन सबधी है । अहंत्व ममत्व के संकोच मे भी सकोच शब्द का प्रयोग हो सकता है । शरीर मे अहत्व की बुद्धि का एव मन-वचनादि मे ममत्व की बुद्धि का संकोच अर्थात् अहत्वममत्व के विसर्जनपूर्वक श्री अरिहतादि परमेष्ठियो को नमस्कार ही निश्चय रूप से आत्मतत्त्व को ही नमस्कार है । चैतन्य स्वरूप में स्वयं का, पर का एवं परमात्मा का आत्मतत्त्व एक ही है । इस प्रकार " सर्वं खल्विद ब्रह्म" की भावना भी श्री नमस्कार मंत्र का ही अर्थ है । तत्त्वमसि । प्रज्ञानमानन्दं ब्रह्म । अयमात्मा ब्रह्म । अहं ब्रह्मास्मि । सर्वं खल्विद ब्रह्म । इत्यादि वेद के सभी महावाक्यों की भावना श्री नमस्कार मंत्र के अर्थ में उपर्युक्त प्रकार से सापेक्ष भाव से सिद्ध हो सकती है ।
श्री नमस्कार मन्त्र में पुण्यानुबंधी पुण्य
श्री नमस्कार मंत्र दुष्कृत का क्षय करता है, सुकृत (पुण्य) को पैदा करता है एव आत्मा का शुद्ध स्वरूप के साथ अनुसंधान कर देता है । ससारी श्रात्मा पापरुचि के कारण संसार मे परिभ्रमरण करती है । श्री नमस्कार मंत्र पाप - रुचि ढालता है, एव धर्म - रुचि प्रकट करता है । पापरुचि ढलने से परपीडापरिहार की वृत्ति जागती है एव धर्मरुचि प्रकट होने से परानुग्रह का परिणाम उत्पन्न होता है तथा वे दोनो होने से चित्त निर्मल होता है । निर्मल चित्त मे आत्म-ज्ञान आविर्भूत होता है । श्रात्म-ज्ञान अनादि कालीन प्रज्ञान एवं मोह का नाश कर शुद्ध स्वरूप की अनुभूति करवाता है । शुद्धात्मा की अनुभूति सकल कर्म के क्षय का कारण बन अव्यावाघ पद की प्राप्ति करवाती है ।
पुण्यानुबंधी पुण्य के स्वरूप को बताते हुए शास्त्रो मे कहा गया है
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