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चिन्मात्र समाधि का अनुभव आत्मध्यान का फल समता है एव समता का फल निर्विकल्प उपयोग अर्थात् निर्विकल्प समाधि है। उस समाधि । को निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि कहते है। उसमें राग-द्वेष तथा सुख-दुख से परे एक ऐसा चिन्मात्र उपयोग रहता है जिसे शास्त्रो मे ज्ञान चेतना के रूप मे पहिचाना जाता है, वह ज्ञान-चेतना वीतराग एवं सर्वज्ञ है । इससे उसमें केवल निरुपाधिक सुख का ही अनुभव होता है । उस सुख मे द्वन्द्व नही । अत' वह द्वन्द्वातीत भी कहा जाता है । नमस्कार महामत्र के प्रथम पद मे ही इस निर्विकल्प चिन्मात्र समाधि को अनुभव करने का एक अनोखा प्रयोग है । गुरु मुख से नमस्कार मत्र की प्राप्ति होते ही नमो द्वारा देव तत्त्व के सम्मुख हुआ जाता है क्योकि नमो पद के साथ ही अरिह शब्द जुडा हुआ है जो देव तत्त्व का वाचक है । जीवात्मा का दल परमात्मा है उस परमात्म-तत्त्व का अनुभव करने के लिए ताण शब्द जोडा गया है। यह ताण शब्द त्राण अर्थ मे है एव वह वारण आज्ञा शब्द के साथ सम्बन्ध रखता है । जहाँ एव जब अरिहतो की आज्ञा का पालन मुख्य बनता है वहाँ एव तब मन, प्राण एवं आत्मा परमात्मा मे एकाकार होते हैं । इस प्रकार 'नमो अरिहतारण' मत्र क्रमश गुरु, मत्र, देवता, आत्मा, मन एव प्राण की एकता करवाकर अन्तरात्मभाव जाग्रत करता है तथा अन्तरात्म भाव मे स्थिर कर परमात्म-भाव की भावना करवाता है । यह भावना अन्त मे परमात्म-भाव प्रकट कर अव्याबाघ सुख का भोक्ता बनाती है ।
नमो पद में निहित अमत क्रिया नमो शब्द विस्मय, पुलक एव प्रमोदस्वरूप है। भव-भय का सूचक भी नमो पद उत्तरोत्तर भाव वृद्धि को सूचित करने