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है । अज्ञान सहित सव पापो को नष्ट करने की शक्ति नमस्कार मे है, क्योकि नमस्कार में आत्म-समर्पण होता है।। समर्पण का अर्थ अनात्म पदार्थों मे आत्मबुद्धि का विसर्जन तथा आत्मभाव मे आत्मा का निमज्जन है। उस निमज्जन का दूसरा नाम शरणागति है । नमो मन्त्र परमतत्त्व को समर्पण होने की क्रिया है। शरणागति को नवधा भक्ति के ऊपर दशम भक्ति कहा जाता है। इस भक्ति का आश्रय लेने वाले को वचन है कि "न मे भक्त. प्रणश्यति" मेरे भक्त का कभी नाश नही है अर्थात् वह मेरी दृष्टि से दूर नही होता है ।
अहम्मन्यता तथा ममता से उद्भूत पाप ही बड़े से बड़ा पाप है। आत्मनिवेदन तथा शरणागति से उन पापो का अन्त होता है । इन दोनो पापो का मूल ब्रह्म सम्बन्ध का अज्ञान है । नमस्कार से सच्चा ब्रह्म सम्बन्ध साधित होता है जिससे अनान, पाप एवं उसके विविध विपाक का सदा के लिए। अन्त होता है।
नमो से होती भक्ति एवं पूजा की क्रियाएँ
__ नमो द्वारा मैं परमात्मा का स्मरण करता हूं, कीर्तन करता हूँ, पूजा करता हूँ, वदन करता हूँ, प्रीति करता हूँ, भक्ति करता हू, अाज्ञा को शिरोधार्य करता हूँ तथा असग भाव से उनके साथ मिल जाता हूँ । स्मरण कीर्तनादि द्रव्य-संकोच रूप है वैसे ही आज्ञापालन तथा शरण गति भाव संकोच रूप है। नमो में दोनो प्रकार के सकोच का अनुभव होता और केवल आत्मतत्त्व का विकास वांछित होता है ।
नमो प्रीतिरूप है, भक्तिरूप है, वचनरूप है तथा असगरूप है । नमो इच्छारूप है, प्रवृत्तिरूप है स्थैर्यरूप है तथा सिद्धिरूप