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करती है | सद्बुद्धि द्वारा तत्त्व की महिमा ज्ञात होती है जिससे अन्तर्मुखी वृत्ति वढने के साथ परमात्मतत्त्व की अनुभूति होने लगती है । इस प्रकार मन, मन्त्र, प्राण तथा देव, गुरु एव श्रात्मा की एकता साधित होती है । उसे ही मन्त्रशास्त्र मे मन्त्र चैतन्य का उद्भव होना कहा जाता है। कहा है कि-
मंत्रार्थ मंत्रचैतन्यं, यो न जानाति तत्त्वत' शत-लक्ष-प्रजप्तोऽपि, मंत्रसिद्धि न ऋच्छति ॥
अर्थात् मन्त्र के अर्थ को एव मन्त्र चैतन्य को जो तत्त्वतः नही जानता है उसे कोटि जाप से भी मन्त्र सिद्धि नही होती है ।
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भाषावर्गणा से श्वासोच्छवासवर्गणा सूक्ष्म है एवं मनो वर्गरणा उससे भी अधिक सूक्ष्म है। उससे भी श्रधि सूक्ष्म कर्म वर्गणा है । उसके क्षय एव क्षयोपशम से अन्तर्मुखी वृत्ति तथा आत्मज्ञान होने लगता है । उसी का नाम मन्त्र चैतन्य की जागृति है । कहा है कि-
गुरुमंत्रदेवताऽऽत्ममन. पवनानामैक्यनिष्कलनादन्तरात्मसवित्तिः ।
अर्थात् मन, मन्त्र, तथा पवन का तथा देव, गुरु और आत्मा का पारस्परिक कथ चिद् ऐक्य सम्बन्ध है यह जानने से अन्तरात्म भाव का सवेदन होता है ।
शब्द ब्रह्म द्वारा परब्रह्म की उपासना
श्री नमस्कार मन्त्र ज्ञायक भाव को नमस्कार करवाना सिखाता है । ज्ञायक भाव श्रात्मा का स्वभाव है । राग-द्वेषादि भाव विभाव है । विभावोन्मुख आत्मा को स्वभावोन्मुख करना ही नमस्कार मन्त्र का कार्य है । ग्ररिह वर्णमाला का एव शब्द ब्रह्म का सक्षिप्त स्वरूप है । शब्द ब्रह्म परब्रह्म का वाचक है