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दुष्कृत की गहीं नहीं होती एव छोटा भी दुष्कृत अनिन्दित रहता है, तव तक यह समझना चाहिए कि स्वपक्षपात रूपी राग-दोप का विकार विद्यमान है । निन्दा के स्थान पर अनुमोदना होने से ही वह मिथ्या है अत जो वास्तविक अनुमोदना का स्थान है उसकी अनुमोदना भी सच्ची नही होती । परकृत अल्प भी सुकृत का अनुमोदन जब तक अवशिष्ट रहता है तब तक अनुमोदना के स्थान पर अनुमोदना के बदले उपेक्षा विद्यमान रहती है तथा वह उपेक्षा भी एक प्रकार की गर्दा हो होती है । सुकृत की गर्ला तथा दुष्कृत का अनुमोदन जब तक आंशिक रूप से भी विद्यमान रहता है तब तक सच्ची शरण प्राप्त नही होती । दुप्कृत का अनुमोदन राग रूप है तथा सुकृत की निन्दा दोप रूप है । उसके मूल मे मोह या अजान या मिथ्याज्ञान निहित है । इस मिथ्याज्ञान रूपी मोहनीय कर्म की सत्ता मे अरिहतादि का शुद्ध आत्म-स्वरूप पहचाना नही जाता क्योकि वह राग-दोप रहित है ।
वीतराग अवस्था की सूझ-बूझ राग-द्वेप रहित शुद्ध स्वरूप की सच्ची पहचान होने हेतु दुष्कृत गर्दा तथा सुकृतानुमोदन सर्वाश शुद्ध होने चाहिएँ । ऐसा होने पर ही रागद्वेप रहित अवस्थावान की सच्ची शरणागति प्राप्त हो सकती है तथा यह शरणागति प्राप्त हो तो ही भवचक्र का अन्त पा सकता है । भवचक्र का अन्त लाने हेतु रागद्वप रहित वीतराग अवस्था की अन्त करण मे सूझ-बूझ होनी चाहिए । सूझ का अर्थ है शोध अर्थात् जिज्ञासा तथा बूझ अर्थात् ज्ञान । वीतराग अवस्था की सूझ-बूझ दुष्कृतगर्दी तथा सुकृतानुमोदन की अपेक्षा रखती है। वीतराग अवस्था का माहात्म्य पहिचानने हेतु हृदय की भूमिका उसके योग्य । होनी चाहिए।