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अनुप्रेक्षा (द्वितीय किरण) प्रभु प्राज्ञा का स्वरूप आम्रवो भवहेतु. स्यात् , संवरो मोक्षकारणम् । इतीयमाहतीष्टिरन्यदस्याः प्रपंचनम् ॥ अर्थ-ग्रास्रव सर्वथा हेय है तथा सवर उपादेय है। आस्रव ससार का कारण है तो सवर मोक्ष हेतु । श्री अरिहन्त परमात्मा की आज्ञा का सक्षेप मे यही परम रहस्य है । अन्य सब कुछ इसी का विस्तार मात्र है।
मिथ्यात्व, अविरति, प्रमाद, कपाय तथा योग ये पांच आस्रव है। सम्यक्त्व, विरति, अप्रमाद, अकपाय तथा प्रयोग ये पांच संवर हैं।
श्री पचमगल महाश्रुतस्कन्ध मे नमस्कार की पांच वस्तुये है, श्री अरिहन्त, सिद्ध, प्राचार्य, उपाध्याय तथा साधु । इस पचक मे प्रास्रव का अभाव है तथा सवर की पूर्णता है। इस पंचक को नमस्कार करने का अर्थ सवर को ही नमस्कार करना है। सवर का अनुगमन प्रभु की प्राज्ञा है । फिर जब यह पचक प्रास्रव से रहित है तो इसको नमन करने का तात्पर्य आस्रव त्याग को ही नमस्कार है क्योकि प्रावव का त्याग प्रभुकी आज्ञा है। इसीलिए इस -पचक के नमस्कार मे सवर का सम्मान है तथा प्रास्रव की निन्दा है। परमेष्ठि को नमस्कार करने से सुकृत की अनुमोदना तथा दुष्कृत की निन्दा होती है । . सुकृत की अनुमोदना से शुभ का, कुशलता का अनुबन्ध होता है
सरह।