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वरूप है । प्रवृत्ति निवृत्ति रूप श्राज्ञा हेयोपादेयार्थक होती है । या यह केवल आज्ञा का व्यावहारिक अर्थ है । श्राज्ञा का श्चियिक अर्थ स्वरूपरमरणता है । स्वरूपरमरणता ही परमार्थरण भूत है । नमस्कार का व्यावहारिक अर्थ व त्याग था सवरसेवन का बहुमान है । नमस्कार का पारमार्थिक अर्थ नाव का त्याग करने वाली तथा सवर का सेवन करने वाली वशुद्ध श्रात्मा है । विशुद्ध आत्मा ज्ञायक रूप है । स्वभाववान आत्मा में परिणमन ही नमस्कार का ऐदपर्यार्थ है तथा वही आत्म साक्षात्कार का अनन्तर कारण है आत्मा वा रे द्रष्टव्यो, श्रोतव्यो, मंतव्यो, निदिध्यासितव्यो ।
श्रवण, मनन, निदिध्यासन से श्रात्मा का साक्षात्कार होता इ। साक्षात्कार ही मुख्य प्रयोजन है । उसका साधन निदिध्यासन, निदिध्यासन का साधन मनन तथा मनन का साधन श्रवरण है । अवरण का अधिकारी मुमुक्षु होता है । मुमुक्षु के लक्षण शम हम - तितिक्षा तथा श्रद्धा-समाधान तथा उपरति है । उसका तुल विराग है तथा विराग का मूल नित्य अनित्य आदि का विवेक तथा विचार है ।
अमनस्कता का मन्त्र
'नमो' मन्त्र सर्वप्राणो को उत्क्रमण करवाता है । 'नमो' मन्त्र का उच्चारण मात्र करने से ही प्राणो का उवकरणउत्क्रमरण होता है । दूसरे अर्थ मे 'नमो' मन्त्र सर्व प्रारणो को परमात्म-तत्त्व मे परिणमन करवाता है प्राणो को मन के ऊपर ले जाने मे 'नमो' न्त्रम सहायता करता है । अमनस्कत्व और उन्मन भाव की अवस्था 'नमो' मन्त्र के पुन. पुन स्मररण से उत्पन्न होती है । कहा जाता है विप्रतीप मनोनम | यह 'नमो' मनकी विशुद्ध दशा मे गतिप्रद मन्त्र है । मनसातीत