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परमात्मा की प्राज्ञा का मूर्तिमन्त-स्वरूप है । परमात्मा की श्राज्ञा का स्वरूप है --निन्दित तथा त्याज्य का त्याग, उपादेय का उपादन तथा उपेक्षणीय की उपेक्षा । मिथ्यात्व आदि त्याज्य है, सम्यक्त्व आदि उपादेय तथा अनात्मतत्त्व उपेक्षणीय है । परमेष्ठि नमस्कार से मिथ्यात्व आदि पापों का नाश होता है, सम्यक्त्व प्रादि गुणो का स्वीकार होता है तथा अजीवतत्त्व की उपेक्षा होती है । उपेक्षा का अर्थ है माध्यस्थ्य परिणति । अजीवतत्त्व न तो राग के योग्य है तथा न द्वेप योग्य है । ऐसी परिणति ( तटस्थ मनोवृत्ति ) ही माध्यस्थ्य परिणति है । जीवमात्र के प्रति मैत्री, प्रजीवमात्र के प्रति माध्यस्थ्य तथा जीव की शुभाशुभ श्रवस्थाओ के प्रति क्रमशः प्रमोद तथा कारुण्य श्रादि भाव परमेष्ठि नमस्कार द्वारा सम्पुष्ट होते है ।
नमस्कार मर्मस्पर्शी
श्रात्मज्ञान प्राप्त करने का मुख्य साधन विचार है | यह विचार दो रूप मे प्रवर्तित होता है। एक वैराग्य के रूप मे व दूसरा मंत्री के रूप मे अर्थात् जीवमात्र के प्रति मैत्रीरूप तथा जडमात्र मात्र के प्रति वैराग्य रूप | नमस्कार दोनो प्रकार के विचारो को प्रेरित करता है । परमार्थभूत ग्रात्मा सत्पुरुषो मे होती है । परमेष्ठि नमस्कार सत्पुरुपो की परमार्थभूत आत्मा को नमस्कार है, इसीलिए परमेष्ठि नमस्कार समस्त शास्त्रो का मर्मरूप है । शास्त्र तो मार्ग बनाते हैं । उसका मर्म सत्पुरुषो के अन्तर मे है तथा परमेष्ठि नमस्कार उस मर्म को छूता है ।
ज्ञान चेतना का आदर
जगत मे यदि कोई सर्वश्रेष्ठ वस्तु है तो वह शुद्ध चैतन्य है । परमेष्ठि नमस्कार में उसका बहुमान होता है । शुद्ध चैतन्य स्वरूप का बहुमान स्वय के शुद्ध पद को प्रकट करता है ।