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एवं अशुभ तथा कुशलता के अनुवन्ध का विच्छेद होता है । परमेष्ठि नमस्कार मे परमात्मा की आज्ञा का बहुमान होता है इससे आज्ञा पालन का व्यवसाय तीव्र होता है तथा श्राज्ञा की विराधना का व्यवसाय समाप्त होता है ।
श्राज्ञा का साम्राज्य
परमेष्ठि नमस्कार प्रभु की आज्ञा के साथ अनुकूल सम्बन्ध स्थापित करवाता है । प्रभु की आज्ञा का साम्राज्य तीनो भुवनो मे प्रवर्तित है । समस्त विश्व का प्रवर्तन प्राज्ञा के प्राचीन है । प्रज्ञा की अवहेलना करने वाला दण्ड का पात्र बनता है तथा प्रभु की आज्ञा का प्राराधक उन्नतिशील बनता है । प्राज्ञा पालक निर्भय होता है । ग्राज्ञा एक दीप है, प्राज्ञा एक त्रारण है, श्राज्ञा शररण है आना ही गति है तथा प्राज्ञा ही दुर्गति मे पडे हुए मनुष्य का त्रालम्वन है। परमेष्ठि नमस्कार मे श्राज्ञाश्राज्ञापालक तथा श्राज्ञा प्रदाता को नमस्कार होने से यह भव्य जीवो को दीप सदृश प्रकाशित करता है अथवा भवसमुद्र मे द्वीप की तरह आधार प्रदान करता है । परमेष्ठि नमस्कार अनर्थ तथा श्रनिष्ट का घात करता है । यह भवभय से पीडित को शरण प्रदान करता है, दुख दारिद्र्य से बचने का मार्ग वताता है और भवकूप मे पडते हुए जीवो का श्रालम्वन स्वरूप वनता है प्रभु की प्राज्ञा मे जितने गुरण हैं उन सबको प्राप्त करने का अधिकारी परमेष्ठि को नमस्कार करने वाला है । इसीलिए परमेष्ठि नमस्कार ही सार पोटली है, रत्न की पेटी है, ढंका हुआ खजाना है, धर्मरूपी स्वर्ण की छाब है तथा है मुक्ति के मुसाफिर भव्य श्रात्मा के लिए देवाधिदेव का परम प्रसाद | परमेष्ठि नमस्कार का श्राराधक आज्ञा का श्राराधक