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स्वयं की शुद्ध चेतना ज्ञान स्वरूप है। परमेष्ठि नमस्कार से कर्मचेतना की तथा कर्मफल की उपेक्षा होती है तथा ज्ञानचेतना का श्रादर होता है। ज्ञानचेतना राग आदि विकारों से रहित होती है, अत वीतराग स्वरूप है तथा ज्ञान सहित है जिससे सर्वज्ञ स्वरूप है। परमेष्ठि नमस्कार में प्रात्मा का वीतराग स्वरूप तथा सर्वज्ञ स्वरूप पूजित होता है । नमस्कार का तात्त्विक अर्थ पूजा है । द्रव्य तथा भाव का सकोच ही पूजा है । द्रव्य सकोच का सम्बन्ध वारणी तथा काया से है तथा भाव संकोच मन से सम्बन्धित है । इस प्रकार मन, वाणी तथा काया से वीतराग स्वरूप तथा सर्वज्ञ स्वरूप ज्ञानचेतना का आदर तथा उसको धारण करने वाले सत्पुरुषो की सतत पूजा ही नमस्कार का तात्पर्यार्थ है। वीतरागिता की पूजा ही प्रभु की आज्ञा है । वीतरागिता ही सर्वज्ञता का अवंध्यकारण होती है। भक्ति की प्रयोजना तथा सेव्यता (सेव्यभाव) की निरन्तरता वीतराग आदि गुणो से युक्त होने के लक्षण है। परमेष्ठि नमस्कार मे वही वस्तु पूजित होती है। अत विपरीत वस्तु असेव्य होने से अपूज्य होती है। नमस्कार से पूज्य की पूजा तथा अपूज्य की अपूजा साधित होती है। इसीलिए यह महामन्त्र है। सत्पुरुषो के लिए नमस्कार सेव्य है आराध्य है तथा मान्य है।
श्रवण मनन निदिध्यासन आज्ञा पदार्थ प्राप्त वचन है । प्राप्त हो यथार्थ वक्ता होता है । यथार्थ वक्ता का यथार्थ वचन ही श्रवण पदार्थ है । मनन पदार्थ युक्ति को ढूंढता है। प्रास्रव हेय होता है क्योकि वह स्व पर पीडाकारक होता है । सवर उपादेय होता है क्योकि वह स्व पर हितकारक होता है । निदिध्यासन पदार्थ ऐदपर्य बताता है। श्राज्ञा का ऐदपर्य प्रात्मा है । आस्रव की हेयता तथा संवर की उपादेयता का ज्ञान जिसको होता है वही आत्मा प्राज्ञा