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का अवलम्वन स्वरूप के बोध का कारण है । ग्रात्मा मे श्रात्मा से श्रात्मा को जानने का साधन अरिहतादि चारो का शररण-स्मरण है । इन चारो का स्मरण ही तत्त्व से ग्रात्मस्वरूप का स्मरण है | जिसको यह वोध हो गया हो कि ग्रात्मा का स्वरूप निश्चय रूप से परमात्मा तुल्य है उसके लिए परमात्म-स्मरण ही वास्तविक शरणागमन है ।
आत्मतत्त्व का स्मरण
श्रात्मतत्त्व का स्मरण विशुद्ध ग्रन्त करण मे होता है । अन्तकरण की विशुद्धि दुष्कृतगर्हा एव सुकृतानुमोदन से होती है | दुष्कृत परपीडा रूप है, उनकी तात्त्विक गर्हा तव होती है जब कि परपीडा से उपार्जित पापकर्म को परोपकार द्वारा दूर करने का वीर्योल्लास जाग्रत होता है । परार्थ करण का वीर्योल्लास परपीडाकृतपाप की सच्ची गर्दा के परिणाम स्वरूप होना है। दुष्कृतगर्हा मे परार्थकरण की वृत्ति निहित है । सुकृतानुमोदन में परार्थकरण की हार्दिक अनुमोदन होता है । चतु शरणगमन मे परार्थकरणस्वभाव वाले ग्रात्मतत्त्व का श्राश्रय है ।
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आत्मतत्त्व स्वयं ही परार्थकरण एव परपीडा का परिहार स्वरूप है । श्रात्मा के मूल स्वभाव को प्राप्त करने हेतु ही परपीडा का ग्रहण एव परोपकार गुरग का अनुमोदन होता है । शुद्ध स्वरूप को प्राप्त ग्ररिहतादि चार सर्वथा परोपकार करने के लिए तत्पर है । ग्रत उस स्वरूप की शरण स्वीकार करने योग्य, आदर एव उपासना के योग्य होती है । शुद्ध श्रात्मतत्त्व सदैव स्वयं के स्वभाव से ही शुद्धीकरण का कार्य करता है । त वही पुन पुन स्मरणीय, प्रादरणीय, ज्ञेय, श्रद्धेय एत्र सर्वभावेन शरण्य है, शरण लेने योग्य है । जव तक स्वकृत