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शरण गमन द्वारा चित्त का समत्व
समग्र विश्वतन्त्र प्रभु के ज्ञान मे दिखाई देता है तथा तदनुरूप प्रवर्तित होता है जिससे प्रभु के अधीन रहने वाले के लिए विश्व की पराधीनता मिट जाती है तथा ऐसी प्रतीति होती है कि प्रभु ससाराधीन नही है, पर प्रभुज्ञान के अधीन ससार है तथा उससे चित्त का समत्व अखण्ड रूप से प्रकाशित रहता है ।
समत्व प्रकाशित होने से ग्रात्मा प्रखण्ड सवर भाव मे रहती है, नवागन्तुक कर्म रुक जाते है तथा पुराने कर्म मुक्त हो जाते है जिससे आत्मा कर्म रहित होकर अव्यावाध सुख की भोक्ता होती है । अरिहतादि चार की शरण का यह अचिन्त्य प्रभाव है ।
अरिहत एव सिद्ध का वीतराग स्वरूप है, साधु का निर्ग्रन्थ स्वरूप है तथा केवलि - कथित धर्म का स्वरूप दयामय है । धर्म ध्रुव है, नित्य है, अनन्त तथा सनातन है । उसका प्रधान लक्षण दया है । दया मे स्वय के दुख के द्व ेप जितना ही द्व ेष दूसरो के दुखो के प्रति जाग्रत रहता है । स्वय के सुख की इच्छा जितनी ही इच्छा दूसरो के सुखों के प्रति भी उत्पन्न होती है | यह इच्छा रागात्मक होते हुए भी परिणाम मे राग को निर्मूल करने वाली होती है । दया मे दूसरो के दुखो के प्रति स्वय के दु ख जितना ही द्वेप है फिर भी वह द्व ेप, द्वेपवृत्ति को अन्त मे निर्मूल करता है । जैसे काटे निकलता है तथा अग्नि से अग्नि शमित होती है
से ही कांटा
तथा विष से
विष नष्ट होता है, इस न्याय के अनुसार रागद्वेष की वृत्तिरूपी काँटे को निकालन हेतु सर्व जीवो के मुख का राग तथा सर्व जीवो के दुख का होप अन्य कांटे का काम करता है ।