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गुरण के स्वामी है उन्हे ही आदर्श मानना, उनके हो सत्कार, सम्मान, प्रादर तथा बहुमान को स्वय का कर्तव्य समझना।
परार्थभाव तथा कृतज्ञता गुण के सच्चे अर्थी जीवो मे उन दो भावो की चरम सीमा तक पहुंचने वालो की शरणागति, भक्ति, पूजा, वहमान आदि महज रूप से आ जाते है। यदि वे नही आवे तो समझना चाहिए कि उसके हृदय मे उत्पन्त दुष्कृतगर्दा अथवा सुकृतानुमोदन का भाव सानुवन्ध तथा ज्ञानश्रद्धायुक्त नही है।
ज्ञान एव श्रद्धा से विहीन दुष्कृतगर्दा तथा सुकृतानुमोदन का भाव निरनुबन्न होता है, क्षणमात्र टिक कर चला जाता है । अत उसे मानुबन्ध वनान हेतु उन दो गुणो को प्राप्त करना तथा उनकी चरम सीमा मे पहुँचे हुए पुरुपो की शरणागति अपरिहार्य है।
यह शरणागति पगर्थभाव तथा कृतज्ञता गुरण को सानुबन्ध वनाने हेतु सामर्थ्य प्रदान करती है, वीर्य बढाती है, उत्साह जाग्रत करती है तथा उसी की तरह जब तक पूर्णत्व प्राप्त न हो अर्थात् उन दो गुणो की क्षायिक भाव से मिद्धि न हो नव तक साधना मे विकास होता रहता है। उसे अनुग्रह भी कहते है। माधना मे उत्तरोत्तर विकाम कर सिद्धि-प्राप्ति तक पहुंचाने वाले श्रेष्ठ प्रकार के पालम्बनो के प्रति आदर का परिणाम तथा उससे प्राप्त होती सिद्धि उन्ही का अनुग्रह गिना जाता है। कहा है कि --
आलम्बनादरोदभूत प्रत्यृहक्षययोगत । ध्यानाद्यारोहणभ्र शो, योगिनां नोपजायते ।।
--अध्यात्मसार