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प्रतिभासित नही होता क्योकि वह स्वयंभू है। अत वीतराग अवस्था ही परम पूज्य है तथा उसे प्राप्त करने के उपाय भूत दुष्कृत - गर्दा, सुकृतानुमोदन तथा शरणगमन परम उपादेय हैं--
वीतरागोऽग्यमौ देवो, ध्यायमानो मुमुक्षुभि । स्वर्गापवर्गफलद शक्तिस्तस्य हि ताशी ॥१॥ यह देव वीतराग होते हुए भी जव मुमुक्ष द्वारा ध्यायित होता है तव स्वर्गापवर्गरूपी फल को प्रदान करता है क्योकि उनको निश्चित रूप से वैसी ही शक्ति है
वीतरागोऽप्यसौ ध्येयो, भव्याना स्याद् भवच्छिदे। विछिन्न बन्धनस्यास्य तान् नैसर्गिको गुण ॥२॥ यह ध्येय वीतराग होते हुए भी भव्य जीवो को भवोच्छेद में सहायक होता है। वन्धन-मुक्त आत्मानो मे यह गुण नैसर्गिक रूप से विद्यमान रहता है।
व्याताओ का राग-द्वप का उन्मूलन करना ही वीतराग आत्माओं का स्वभाव है। स्वभावोऽतक गोचर--स्वभाव तर्क का अविषय है। वस्तु का स्वभाव ही स्व-पर के ससार का नाशक है । वस्तु स्वभाव मात्र ही तर्क से अग्राह्य है ।
सच्चा सुकृतानुमोदन दुष्कृत मात्र का प्रायश्चित पदार्थवृत्ति है । परपीडा से दुष्कृत का उपार्जन होता है। अत. उसकी विपक्ष पदार्थवृत्ति का सेवन ही उसके निराकरण का उपाय है।
वृत्तिमात्र मन, वचन, काया से होती है। उसमे दुष्टत्व लाने वाला परपीडा का अध्यवसाय है तथा वह अध्यवसाय रागभाव मे से या स्वार्थभाव मे से उत्पन्न होता है। स्वार्थभाव