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स्वदोषदर्शन होता है एव राग-द्व ेष की कमी ज्ञानदर्शन गुण के विकास होने से होती है । ग्ररिहतादि की मंगलमयता एव लोकोत्तमता को देखने से एव उनकी शरण स्वीकार करने से ज्ञान- दर्शन गुण का विकास होता है ।
दुष्कृत एवं सुकृत
वीतराग परमात्मा निग्रहानुग्रह सामर्थ्य युक्त एव सर्वज्ञसर्वदशित्व गुरण को धारण करने वाले होने से सर्वपूज्य है । रागदोप जाने से करुणा गुरण प्रकट होता है, द्वप दोष जाने से माध्यस्थ्य भाव प्रकट होता है । करुणा गुरण का स्थायीभाव अनुग्रह है एव माध्यस्थ्य गुरण का स्थायीभाव निग्रह है । स्वय का पक्षपात ही राग है । स्वयं के अतिरिक्त सभी की उपेक्षा ही द्व ेष है | राग दुष्कृत - ग का प्रतिबन्धक है । यहाँ दुप्कृत का अर्थ है स्वकृत अनन्तानन्त अपराध एव सुकृत का अर्थ है परकृत अनन्तानन्त उपकार । स्वय के अपराध की निन्दा एवं दूसरो के उपकार की प्रशसा तभी हो सकती है जव प्रशस्त राग द्वेष नष्ट हो जाय । ज्ञानदर्शन गुरण रागद्वेष का प्रतिपक्षी है अर्थात् रागद्वेष जाने से एक तरफ अनन्त ज्ञानदर्शनगुरण प्रकट होता है दूसरी तरफ निग्रहानुग्रह सामर्थ्य प्रकट होता है एव उन दोनो के कारणभूत करुणा एव माध्यस्थ्यभाव जाग्रत होते है ।
वीतराग अर्थात् करुणानिधान एव माध्यस्थ्यगुरण के भण्डार, तथा वीतराग अर्थात् अनन्त ज्ञान, दर्शन स्वरूप केवल ज्ञान एव केवलदर्शन के स्वामी, सर्ववस्तु को जानने वाले एव देखन े वाले होते हुए भी सभी से अलिप्त रहन े वाले, सभी के ऊपर स्वप्रभाव को डालने वाले पर किसी के भी प्रभाव मे कभी भी नही आने वाले प्रभु |