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का प्रतिपक्षी भाव परार्थभाव है । अत परार्थभाव ही भव्यत्व परिपाक का तात्त्विक उपाय है, परन्तु वह परार्थभाव परपीड़ा के प्रायश्चित स्वरूप होना चाहिए।
परार्थभाव से एक ओर न तन परपीड़ा का वर्जन होता है तथा दूसरी तरफ पूर्वकृत परपीडा का शुद्धीकरण होता है। अत. परार्थभाव ही सच्ची दुष्कृतगर्दी है। दुष्कृत गर्हणीय है, त्याज्य है, हेय है, ऐसी सच्ची बुद्धि उसे ही उत्पन्न हुई मानी जाती है जो कि सुकृत को स्पष्टभाव से अनुमोदनीय, उपादेय तथा आदरणीय मानता है।
परपीड़ा दुष्कृत है तथा परोपकार सुकृत है। परोपकार में कर्तव्यबुद्धि उत्पन्न होना ही दुष्कृत-मात्र का सच्चा प्रायश्चित है । जो परोपकार को कर्त्तव्य मानता है उसमे एक दूसरा गुण भी उत्पन्न होता है जिसका नाम कृतज्ञता है।
अपने लिए दूसरो द्वारा किया गया उपकार जिसकी स्मृति मे नही है वह परोपकार गुण को समझा ही नही है । कृतज्ञता गुण मृकृत का अनुमोदन करवाता है तथा उससे उपकारवृत्ति दृढ होती है । इतना ही नही दूसरो का भला करने का अहकार भी उसमे विलीन हो जाता है। स्वकृत परोपकार अपन लिए दूसरो के द्वारा किए गए उपकार की तुलना मे शतांश, सहस्राश अथवा लक्षांश भाग भी नहीं होता। परार्थभाव के माथ कृतजतागुण सयुक्त हो तो ही परार्थभाव तात्त्विक बनता है।
अरिहंतादि की शरणगमन
परार्थवृत्ति तथा कृतज्ञतागुण से दुष्कृतगर्दा तथा सुकृतानुमोदन रूप भव्यत्व परिपाक के दोनो उपायो का सेवन होता है, तीसरा उपाय अरिहतादि चारो की शरण मे जाना है। यहाँ शरणगमन का अर्थ है-जो परार्थभाव तथा कृतज्ञता