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ध्यान का फल समापत्ति, ग्रापत्ति (तीर्थंकर नाम कर्म का उपार्जन ) तथा सम्पत्ति (तीर्थकर नाम कर्म का विपाकोदय) रूप होने से विशति स्थानक तप आदि का आराधन सफल माना गया है । जिससे वह फल प्राप्त नही होता । न ही उसके लिए वह श्राराधन कष्टमात्र फल वाला है तथा वह तो इस भवचक्र में भव्यो को भी दुर्लभ नही ।
नवकार के प्रथम पद का भाव से होता आराधन इस प्रकार समापत्ति आदि भेद द्वारा सफल होने से अत्यन्त उपादेय है ।
धर्म ध्यान एवं शुक्ल ध्यान
शास्त्रो मे ग्राज्ञाविचय, उपायविचय, विपाकविचय तथा सस्थानविचय आदि चार प्रकार का ध्यान कहा गया है । वह "धर्म-ध्यान नवकार के प्रथम पद नमो पद की प्रर्यभावना द्वारा साधा जा सकता है ।
नमस्कार मे प्रभु की आज्ञा का विचार है, रागादि दोपो की अनिष्टकारिता तथा ज्ञानावरणीय आदि आठ प्रकार के कर्मो के विपाक की निरसता का भी विचार है । चौदह राजलोक रूप विस्तार वाले आकाश प्रदेशो मे धर्मस्थान की प्राप्ति की प्रात्यन्तिक दुर्लभता है यह विचार रूपी सस्थानविचय ध्यान भी उसी में निहित है ।
'अरिह' पद मे शुक्ल ध्यान के प्रथम दो भेद पृथक्त्व वितर्क - सविचार तथा एकत्व वितर्क - प्रविचार तथा 'तारा' पद शुक्ल ध्यान के अन्तिम दो भेद सूक्ष्म क्रिया- श्रप्रतिपाति तथा व्युपरत - क्रिया-प्रनिवृत्ति का विचार निहित है । इस प्रकार अर्थ - भावनापूर्वक प्रथमपद का जाप धर्मध्यान के चारो स्तम्भ तथा शुक्लध्यान के स्तम्भो का एक साथ संग्राहक होने से प्रति