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उज्ज्वल लेश्या का उत्पादक होता है । अत. पात्मार्थी जीवो के लिए अत्यन्त उपादेय है तथा पुन पुन करने योग्य है ।
तप, स्वाध्याय एवं ईश्वर प्रणिधान
योगशतक मे कहा गया है कि~
सरण भए उवायो रोगे किरिया विसम्मि मंतो य । एए वि पापकम्मोवक्कमभेया उतत्तेणं ॥१॥ सरणं गुरु य इत्थं, किरिया उतवोत्ति कम्मरोगम्मि । मंतो पुण समाओ, मोह विसविणासणो पवरो॥२॥
जव अन्य से भय उत्पन्न होता है तव समर्थ की शरण मे जाना ही उसका उपाय है। कुष्ठादि व्याधि का उपाय जैसे योग्य चिकित्सा है, तथा स्थावर-जगम रूप विप के उपद्रव का निवारण जैसे देवाविष्ठित अक्षरन्यास रूप मन्त्र है वैसे ही भयमोहनीय आदि पापकर्मों का उपक्रम अर्थात् विनाश करने के उपाय शरणागति आदि को ही कहा गया है।
शरण्य गुरुवर्ग है, कर्मरोग की चिकित्सा वाह्य प्राभ्यन्तर तप है, तथा मोह विप का विनाश करने में समर्थ मन्त्र पाँच प्रकार का स्वाध्याय है । पातजल योग सूत्र मे भी कहा गया है कि:
तप स्वाध्यायेश्वरप्रणिधानानि क्रियायोग । समाधिभावनार्थः क्लेशतनूकरणार्थश्च ।।
(२।१-२)