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अर्थभावना मे स्थित है क्योंकि उसके तीनो पदो द्वारा धर्म के श्रवण-मनन निदिध्यासन आदि तीनो कार्य सिद्ध होते है। धर्म की तथा योग की सिद्धि हेतु जो तीनो उपाय शास्त्रकारों ने बताये है उन तीनो की आराधना प्रथम पद की आराधना से सिद्ध होती है । इस हेतु योगाचार्यों ने कहा है कि -
आगमेनानुमानेन, ध्यानाभ्यासरसेन च । त्रिधा प्रकल्पयन् प्रजा, लभते योगमुत्तमम् ।
आगम, अनुमान तथा ध्यानाभ्यास का रस इन तीनो उपायो से प्रज्ञा को जव समर्थ बनाया जाता है तव उत्तमयोग की अथवा उत्तम प्रकार से योग की अर्थात् मोक्ष मार्ग की प्राप्ति होती है। योग द्वारा जो योग साधना करनी होती है उन तथा मोक्ष दोनो की प्रथम श्रद्धा आगम के श्रवण द्वारा उत्पन्न होती है। फिर अनुमान, युक्ति आदि के विचार द्वारा प्रतीति होती है तथा अन्त मे ध्यान निदिध्यासन द्वारा स्पर्शना अर्थात् प्राप्ति होती है।
आगम, अनुमान, ध्यान अथवा श्रुत, चिन्ता तथा भावना क्रमश श्रवण, मनन तथा निदिध्यासन के ही पर्यायवाचक शब्द है तथा उन तीनो अंगो की आराधना प्रथम पद की अर्थ भावना युक्त अाराधना द्वारा होती है।
धर्मकाय, कर्मकाय तथा तत्त्वकाय अवस्था
तीर्थंकरो की धर्मकाय, कर्मकाय तथा तत्त्वकाय ये तीन अवस्थाए होती हैं। शास्त्र की परिभापा मे उन्हे क्रमश पिण्डस्थ, पदस्थ तथा रूपातीत नाम से सम्बोधित किया जाता है। धर्मकाय अथवा पिडस्थ अवस्था प्रभु की सयक्त्व प्राप्ति के पश्चात् होती धर्म साधना को कहा जाता है। अन्तिम भव