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दोप जाते हैं, सम्यक् दर्शन द्वारा द्वेष दोष जाता है व सम्यक् चरित्र द्वारा मोह दोष जाता है । मन की शुद्धि मुख्य रूप से 'नमो' पद व उसके अर्थ की भावना द्वारा होती है । वचन की शुद्धि 'रिह' पद एव उसके अर्थ की भावना द्वारा होती है । काया की शुद्धि 'तारण' पद तथा उसके अर्थ की भावना द्वारा होती है ।
'नमो' पद मगलसूचक है । 'अरिह' पद उत्तमता का सूचक है एवं 'तारण' पद शरणागति को सूचित करता है | मंगल, उत्तम एव शरण को बताने वाले प्रथम पद की भावना क्रमश. ज्ञान, दर्शन एव चारित्र की शुद्धि करती है ।
सच्चा ज्ञान दुष्कृतवान स्वात्मा की गर्हा करवाता है, सच्चा दर्शन सुकृतवान अरिहृतादि की स्तुति करवाता है तथा सच्चा चारित्र ग्राज्ञा पालन के भाव का विकास करता है । दुष्कृत के प्रति राग, सुकृत के प्रति द्वेप तथा श्राज्ञा पालन के प्रति प्रमाद सम्यक् ज्ञान, दर्शन व चारित्र गुरण के विकास से नष्ट होते है तथा इन तीनो गुरणो का विकास प्रथम पद के भावनापूर्वक होते जाप द्वारा सुसाध्य बनता है ।
नवकार चौदह पूर्व - अष्ट-प्रवचन माता
महामन्त्र का मुख्य विपय योगशास्त्र मे वरिणत लक्षणो वाली मनोगुप्ति है । वहाँ कहा गया है कि
विमुक्तकल्पनाजालं, समत्वे सुप्रतिष्ठितम् । आत्मारामं मनन्तज्ज्ञैर्मनोगुप्तिरुदाहृता ॥
आर्त रौद्र ध्यान का त्याग, धर्म ध्यान से स्थिरता एव आत्माराम वाला शुक्लव्यान जिसमे हो उसे ज्ञानी पुरुषो ने मनोगुप्ति कहा है | नवकार मन्त्र के जाप से तीनो कार्य