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परमात्मा का ध्यानतत्त्व प्रीतिकर जल है तत्त्ववोधकर निर्मल नेत्राञ्जन है एव मर्वरोगहर परमान्न भोजन है। नवकार के प्रथम पद मे होता अरिहत परमात्मा का ध्यान इन तीनो कार्यो को करता है 'नमो' पद से मिथ्यात्व का त्याग । 'अरिह' पद से अज्ञान का त्याग एव 'तारा' पद से अविरति का त्याग होता है। नमनीय को न नमना ही मिथ्यात्व है । आत्मा के शुद्ध स्वरूप को न जानना ही अज्ञान है तथा आचरण करने योग्य का आचरण न करना ही अविरति है। नवकार के प्रथम पद के पाराधन से नमनीय को नमन, ज्ञातव्य का ज्ञान व करणीय का सम्पादन होने से तीनो दोपो का निवारण हो जाता है ।
बहिरात्मभाव-अन्तरात्मभाव-परमात्मभाव
नवकार के प्रथम पद से वहिरात्मभाव का त्याग, अन्तरात्मभाव का स्वीकार तथा परमात्मभाव का आदर होता है। श्री अानन्दघनजी महाराज सुमतिनाथ भगवान के स्तवन मे कहते है कि --
बहिरात्म तजी अन्तर आतमारूप थई थिर भाव सुज्ञानी, परमातमनु हो पातम भाव बुं, आतम अरपण दाव, सुनानी,
सुमतिचरणकंज आतम अरपणासुमतिनाथ भगवान के चरणकमल मे अात्मा का अर्पण करने का दाव यह है कि बहिरात्म भाव का त्याग कर, अन्तरात्म भाव मे स्थिर हो, स्वात्मा ही तत्त्व से परमात्म है इस भाव मे रमण करना । नमोपद द्वारा वहिरात्म भाव का त्याग व अन्तरात्म भाव का स्वीकार होता है तथा अरिह एव