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आत्मानुभूति करवाता है ( मन त्रायते -- मन को रक्षित करता है मनस त्रायते—प्रारण की मन से रक्षा | ) प्रारण तत्त्व श्रात्मा के वीर्य गुरण के साथ निकट का सम्बन्ध स्थापित करता है ।
शब्द के दो अर्थ होते हैं, एक वाच्यार्य एव दूसरा लक्ष्यार्थ । वाच्यार्थ का सम्बन्व शब्द कोप के साथ है । लक्ष्यार्थ का सम्बन्ध साक्षात् जीवन के साथ है । नच मंगल का लक्ष्यार्थ प्राणतत्त्व की शुद्धि द्वारा साक्षात् जीवनशुद्धि करवाने वाला होता है ।
कर्म का निरनुबन्ध नय
जब चित्त मे अरति, उद्वेग एव परिश्रान्ति का भास हो तव जानना चाहिए कि मोहनीय कर्म का उदय एव उसके साथ अशुभ कर्म का विपाक जाग्रत हो गया है । उसे टालने का उपाय पच मगल है ऐसा शास्त्रकारो ने कहा है । पच मंगल का शान्त चित्त से एकाग्रतापूर्वक जाप करने से अशुभ कर्म - विचालित हो शुभ कर्म मे परिवर्तित हो जाते हैं । उसका यह अर्थ है कि उदित कर्म अवश्य भोगना पड़ता है, उसे ज्ञानी ज्ञान से, समता से एव अज्ञानी अज्ञान से, श्रार्त रोद्र ध्यान से भोगते हैं । ज्ञानी को नवीन कर्म वन्ध नही होता पर ग्रज्ञानी को होता है ।
सत्ता मे से अर्थात् सचित मे से उदय मे आते हुए कर्म मे वर्तमान के शुभाशुभ भाव से अन्तर पड सकता है । पच मगल के जाप एव स्मरण मे ज्ञानी के ज्ञान गुण से, साधु के संयम गुण से, तपस्वियो के तप गुरण से अनुमोदना होती है एव जनउन गुणो का मानसिक आसेवन होता है । उनसे जो शुभ भाव जागता है, उससे अशुभ कर्म की स्थिति एव रस घट जाता है एव शुभ रस बढ जाता है । उदयागत कर्म समताभाव से अनुभव होने से उसका निरनुबन्धक्षय हो जाता है ।