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महाबंधे ट्ठिदिबंधाहियारे
उक्क० हिदिबं० देवगदिअट्ठावीसं शिय० बं० । संखेज्जदिभा० । सुभ-जस० सिया० । 1 तं तु० । असुभ अजस० सिया० संखेज्जदिभागू० । एवं सुभ-जस० । तित्थ० उक्क०हिदिबं० देवगदि-पंचिंदि ० आदिहावीसं पगदीओ यि० संखेज्जदिभागूणं बं० ।
५४. कम्मइ० पंचणा०-णवदंसणा०-सादासा० - गोद० - पंचंत० श्रघं । मिच्छ● उक्क० द्विदिबं० सोलसक०स० अरदि-सोग-भय-दुगु ० । लिय० । तं तु । एवमेदा एकमेकस्स । तं तु० । इत्थिवे उक्क० • द्विदिबं० मिच्छ० - सोलसक० -अरदिसोग-भय-दुगु ० य० संखेज्जदिभागूणं बं० । पुरिस० उक० द्विदिवं० इत्थिभंगो । हस्स-रदि० सिया० । तं तु ० | अरदि-सोग सिया० संखेज्जदिभागूणं० । हस्स बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । स्थिर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागar स्थितिका बन्धक होता है । शुभ और यशःकीर्ति प्रकृतियों का कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थिति का भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अशुभ और श्रयशःकीर्ति प्रकृतियोंका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् अबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार शुभ और यशःकीर्ति प्रकृतियोंके आश्रयसे सन्निकर्ष जानना चाहिए। तीर्थकर प्रकृतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव देवगति और पञ्चेन्द्रिय जाति आदि अट्ठाईस प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है । जो नियम से अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है ।
५४. कार्मण काययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, नौ दर्शनावरण, साता श्रसाता वेदनीय, दो गोत्र और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । मिध्यात्वकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव सोलह कषाय, नपुंसकवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यून से लेकर पल्यका श्रसंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है । इसी प्रकार इन सबका परस्पर सन्निकर्ष जानना चाहिए। इनमेंसे किसी एककी उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक शेषकी उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है । स्त्रीवेद की उत्कृष्ट स्थितिका बन्धक जीव मिथ्यात्व, सोलह कषाय, रति, शोक, भय और जुगुप्सा इनका नियमसे बन्धक होता है । जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भागहीन स्थितिका बन्धक होता है । पुरुषवेद की उत्कृष्ट स्थितिके बन्धक जीवका भङ्ग स्त्रीवेदके समान है । यह हास्य और रतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है । यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है । यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टको अपेक्षा अनुत्कृष्ट, एक समय न्यून से लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। अरति
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