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उक्कस्ससत्थाणबंधसण्णियासपरूवणा पगदीओ ताओ ऍक्कमेक्कस्स तं तु० । सेसाो संखेज्जदिभागूणा बंधदि ।
५२. आहार-आहारमि० पंचणा-छदसणा०-दोवेदणी-पंचंत० ओघं । कोधसंज० उक्क हिदिवं० तिएिणसंज-पुरिस-अरदि-सोग-भय-दुगु णिय० बं० । तं तु० । एवमेदाओ एक्कमेक्कस्स । तं तु । हस्स० उक्क हिदिवं० चदुसंज--पुरिस०भय-दुगुणिय० संखेज्जदिभागृणं बं० । रदी० णिय । तं तु. । एवं रदीए ।
५३. देवगदि० उक्क हिदिवं. पंचिंदियादिपगदीओ णिय० बं० । तं तु० । तित्थय. सिया० । तं तु० । एवं देवगदिसहगदाओ ऍक्कमेक्कस्स । तं तु० । थिर० स्पर उत्कृष्ट स्थितिबन्धवाली या एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवां भाग न्यून तक अनुत्कृष्ट स्थितिबन्धवाली प्रकृतियाँ हैं, उनका यह जीव परस्पर या तो उत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है या उत्कृष्टकी अपेक्षा एक समय कमसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनवक अनुत्कृष्ट स्थितिबन्ध करता है और शेषका संख्यातवाँ भाग न्यून स्थितिबन्ध करता है।
५२. श्राहारककाययोगी और आहारकमिश्रकाययोगी जीवोंमें पाँच ज्ञानावरण, छह दर्शनावरण, दो वेदनीय और पाँच अन्तराय प्रकृतियोंका भङ्ग ओघके समान है । क्रोध संज्वलनकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव तीन संज्वलन, पुरुषवेद, अरति, शोक, भय और जुगुप्साका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार इनका परस्पर सन्निकर्ष होता है। और तब इनकी उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतक स्थितिका बन्धक होता है। हास्यकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव चार संज्वलन, पुरुषवेद, भय और जुगुत्साका नियमसे बन्धक होता है। जो अनुत्कृष्ट संख्यातवाँ भाग हीन स्थितिका बन्धक होता है। रतिका नियमसे बन्धक होता है । जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भागहीनतक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार रतिके आश्रयसे भी सन्निकर्ष जानना चाहिए ।
५३. देवगतिकी उत्कृष्ट स्थितिका बन्ध करनेवाला जीव पञ्चेन्द्रिय जाति आदि प्रकृतियोंका नियमसे बन्धक होता है। जो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो नियमसे उत्कृष्टसे अनुत्कृष्ट,एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यूनतकस्थितिका बन्धक होता है । तीर्थकर प्रकृतिका कदाचित् बन्धक होता है और कदाचित् प्रबन्धक होता है। यदि बन्धक होता है तो उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका बन्धक होता है तो उत्कृष्ट से अनुत्कृष्ट, एक समय न्यूनसे लेकर पल्यका असंख्यातवाँ भाग न्यून तक स्थितिका बन्धक होता है। इसी प्रकार देवगतिके साथ बँधनेवाली प्रकृतियोंका परस्पर सन्निकर्ष होता है। तब यह जीव उत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है और अनुत्कृष्ट स्थितिका भी बन्धक होता है। यदि अनुत्कृष्ट स्थितिका
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