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१. अनित्यानुप्रेक्षा प्रेक्षा। ५ । न शुचिरपवित्रकायः अशुचिः तस्य भावः अशुचित्वम् अशुचित्वानुप्रेक्षा। ६ । आस्रवतीति आस्रव आस्रवानुप्रेक्षा । ७ । कर्मागमनं संवृणोति अभिनवकर्मणां प्रवेशं कर्तुं न ददातीति संवरः संवरनामानुप्रेक्षा । ८ । एकदेशेन कर्मणः निर्जरणं गलनं अधःपतनं शटनं निर्जरा निर्जरानुप्रेक्षा । ९ । लोक्यन्ते जीवादयः पदार्था यस्मिन्निति लोकः लोकानुप्रेक्षा । १० । दुःखेन बोधिलभ्यते दुर्लभः दुर्लभानुप्रेक्षा । ११ । उत्तमपदे धरतीति धर्मः, धर्मानुभावना धर्मस्यानुभवनम् अनुप्रेक्षणं धर्मानुभावना धर्मानुप्रेक्षा । १२ । एतासां खरूपं यथास्थानं निरूपयिष्यामः ॥ २-३ ॥
१. अनित्यानुप्रेक्षा अथैकोनविंशतिगाथाभिरनित्यानुप्रेक्षां व्याख्याति
ज किंचिं वि उप्पण्णं तस्स विणासो हवेई णियमेण ।
परिणाम-सरूवेण विण य किंचि' वि सासयं अस्थि ॥ ४ ॥ [छाया-यत् किंचिदपि उत्पन्नं तस्य विनाशः भवति नियमेन । परिणामस्वरूपेणापि न च किंचिदपि शाश्वतमस्ति ॥] यत् किमपि वस्तु उत्पन्नम् उत्पत्तिप्राप्तं जन्मप्राप्तमित्यर्थः, तस्यापि वस्तुनः विनाशः भङ्गः भवेत् नियमेन
हैं । शरीर आदि अन्य वस्तुओंके भावको अन्यत्व कहते हैं । आत्मासे शरीर आदि पृथक् चिन्तन करनेको अन्यत्व अनुप्रेक्षा कहते हैं । अशुचि-अपवित्र शरीरके भावको अशुचित्व कहते हैं । शरीरकी अपवित्रताका चिन्तन करना अशुचित्व अनुप्रेक्षा है । आनेको आस्रव कहते हैं । कोक आस्रवका चिन्तन करना आस्रव अनुप्रेक्षा है । आस्रवके रोकनेको संवर कहते हैं । उसका चिन्तन करना संवर अनुप्रेक्षा है। कोंके एकदेश क्षय होनेको निर्जरा कहते हैं । उसका चिन्तन करना निर्जरा अनुप्रेक्षा है । जिसमें जीवादिक पदार्थ पाये जाते हैं, उसे लोक कहते हैं । उसका चिन्तन करना लोक अनुप्रेक्षा है । ज्ञानकी प्राप्ति बड़े कष्टसे होती है, अतः वह दुर्लभ है । उसका चिन्तन करना दुर्लभ अनुप्रेक्षा है । जो उत्तम स्थानमें धरता है, उसे धर्म कहते हैं । उसका चिन्तन करना धर्म अनुप्रेक्षा है । इनका विस्तृत स्वरूप आगे यथास्थान कहा जायेगा ॥२-३ ॥ अब उन्नीस गाथाओंसे अनित्यानुप्रेक्षाका व्याख्यान करते हैं । अर्थ-जो कुछ भी उत्पन्न हुआ है, उसका विनाश नियमसे होता है । पर्यायरूपसे कुछ भी नित्य नहीं है ॥ भावार्थ-जो कुछ भी वस्तु उत्पन्न हुई है, अर्थात् जिसका जन्म हुआ है, उसका विनाश नियमसे होता है। पर्यायरूपसे चाहे वह खभावपर्याय हो अथवा विभावपर्याय हो-कोई भी वस्तु नित्य नहीं है । गाथा में एक 'अपि' शब्द अधिक है । वह ग्रन्थकारके इस अभिप्रायको बतलाता है कि वस्तु द्रव्यत्व और गुणत्वकी अपेक्षासे कथञ्चित् नित्य है और पर्यायकी अपेक्षासे कथञ्चित् अनित्य है । सर्वथा नित्य या सर्वथा अनित्य कुछ भी नहीं है । गाथाके पूर्वार्द्धसे ग्रन्थकारने उन्हीं वस्तुओंको अनित्य बतलाया है, जो उत्पन्न होती हैं, जिन्हें उत्पन्न होते और नष्ट होते हम दिन रात देखते हैं, और स्थूल बुद्धिवाले मनुष्य भी जिन्हें अनित्य समझते हैं । किन्तु उत्तरार्धसे वस्तुमात्रको अनित्य बतलाया है । जिसका खुलासां इस प्रकार है-जैन दृष्टि से प्रत्येक वस्तु-द्रव्य, गुण और पर्यायोंका एक समुदायमात्र है । गुण और पर्यायोंके समुदायसे अतिरिक्त वस्तु नामकी कोई पृथक् चीज
१ गाथारम्भ ब अदुवाणुवेक्खा। २ब म सग किंपि। ३ग इवह। ४बय। ५लम सग किंपि।
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