Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 486
________________ -४८२] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३६७ येन स तथोक्तः । तथा हि आर्तरौद्रपरित्यागलक्षणमाज्ञापायविपाकसंस्थानविचयसंज्ञाचतुर्भेदभिन्नं तारतम्यवृद्धिक्रमेणासंयतसम्यग्दृष्टिदेशविरतप्रमत्तसंयताप्रमत्तसंयताभिधानचतुर्गुणस्थानवर्तिजीवसंभवं मुख्यवृत्त्या पुण्यबन्धकारणमपि परंपरया मुक्तिकारणं चेति । तद्यथा । स्वयं मन्दबुद्धित्वेऽपि विशिष्टोपाध्यायाभावेऽपि शुद्धजीवाजीवास्रवबन्धसंवरनिर्जरामोक्षपुण्यपापद्वयसहितनवपदार्थानां सप्ततत्त्वानां जीवादिद्रव्याणां षण्णां द्रव्यपर्यायगुणयुक्तानाम् उत्पादव्ययध्रौव्यसहिताना सूक्ष्मत्वे सति 'सूक्ष्म जिनोदितं वाक्यं हेतुभि व हन्यते । आज्ञासिद्धं तु तद्बाह्यं नान्यथा वादिनो जिनाः ॥ इति श्लोककथितक्रमेण पदार्थानां निश्चयकरणमाज्ञाविचयधर्मध्यान भण्यते । तथैव भेदाभेदरत्नत्रयभावनाबलेनास्माकं परेषां वा कर्मगामपायो विनाशो भविष्यतीति चिन्तनमपायविचयध्यानं ज्ञातव्यम् २। शुद्धनिश्चयेन शुभाशुभकर्मविपाकरहितोऽप्ययं जीवः पश्चादनादिकर्मबन्धवशेन पापस्योदयेन नारकादिदुःखविपाकफलमनुभवति । पुण्योदयेन देवादिसुखविपाकफलमनुभवति । इति विचारणं विपाकविचयं विज्ञेयम् ३ । पूर्वोक्तलोकानुप्रेक्षाचिन्तनं संस्थानविचयमिति ।। चतुर्विधधर्मध्यानं भवति । तथा दशविधं धर्मध्यानं भवति । “अपायोपायजीवाज्ञाविपाका जीवहेतवः । विरागभवसंस्थानान्येतेभ्यो विचयं भवेत् ॥ सदृष्ट्याद्य प्रमत्तान्ता ध्यायन्ति शुभलेश्यया। धर्म विशुद्धिरूपं यद्रागद्वेषादिशान्तये॥" स्वसंवेद्यमाध्यात्मिकं धर्मध्यानं दशप्रकारम् । एतद्दशविधमपि दृष्टश्रुतानुभूतेहपरलोकभोगाकांक्षादोषवर्जनपरस्परस्य मन्दतरकषायानुरजितस्य भव्यवरपुण्डरीकस्य भवति । एकान्तनिरञ्जनस्थाने बद्धपल्यङ्कासनस्य वारे वामहस्ततलस्योपरि दक्षिणहस्ततलस्थापितस्य नासिकाग्रस्थापितलोचनस्य पुंसः शुभध्यानं स्यात् । अपायविचयं नाम अनादिसंसारे यथेष्टचारिणो जीवस्य मनोवाकायप्रवृत्तिविशेषोपार्जितपापानां परिवर्जन तत्कथं नाम मे स्यादिति । अथवा मिथ्यादर्शनज्ञानचारित्रेभ्यः स्वजीवस्य अन्येषां वा कथम् अपायः विनाशः स्यादिति संकल्पः चिन्ताप्रबन्धः प्रथमं धर्म्यम् । १। उपायविचयं प्रशस्तमनोवाकायप्रवृत्तिविशेषोऽवश्यः कथं मे स्यादिति संकल्पोऽध्यवसानं वा, दर्शनमोहोदयाचिन्तादिकरणवशाज्जीवाः सम्यग्दर्शनादिभ्यः पराग्रुखा इति चिन्तनम् उपायविचयं द्वितीयं धर्म्यम् । २। जीवविचयं जीव उपयोगलक्षणो द्रव्यार्थादनाद्यनन्तो असंख्येयप्रदेशः खकृतशुभाशुभकर्मफलोपभोगी गुणवान् आत्मोपात्तदेहमात्रः प्रदेशसंहरणविसर्पणधर्मा सूक्ष्मः अव्याघातः ऊर्ध्वगतिस्वभाव 'जिन भगवानके द्वारा कहा हुआ तत्त्व बहुत सूक्ष्म है, युक्तियोंसे उसका खण्डन नहीं किया जा सकता। उसे जिन भगवानकी आज्ञा समझकर ग्रहण करना चाहिये, क्यों कि जिन भगवान मिथ्यावादी नहीं होते।' इस उक्तिके अनुसार श्रद्धान करना आज्ञाविचय धर्मध्यान है । रत्नत्रयकी भावनाके बलसे हमारे तथा दूसरोंके कर्मोंका विनाश होता है ऐसा विचारना अपायविचय धर्मध्यान है। अनादिकालसे यह जीव शुभाशुभ कर्मबन्धमेंसे पापकर्मका उदय होनेपर नरकादि गतिके दुःखोंको भोगता है और पुण्यकर्मका उदय होनेपर देवादि गतिके सुखोंको भोगता है, ऐसा विचार करना विपाक विचय धर्मध्यान है । पहले लोकानुप्रेक्षामें कहे गये लोकके स्वरूपका विचार करना संस्थानविचय धर्मध्यान है। इस प्रकार धर्मध्यानके चार भेद हैं । सम्यग्दृष्टिसे लेकर अप्रमत्तसंयत गुणस्थानवर्ती जीव राग द्वेषकी शान्तिके लिये शुभ भावोंसे इन धर्मध्यानोंको ध्याते हैं । इस लोक और परलोक सम्बन्धी भोगोंकी चाह को सदोष जानकर मन्दकषायी भव्य जीव निर्जन एकान्त स्थानमें पल्यंकासन लगावे और अपनी गोदमें बाई हथेलीके ऊपर दाहिनी हथेलीको रखकर तथा दोनों नेत्रोंको नासिकाके अग्रभागमें स्थापित करके शुभध्यान करे। धर्मध्यानके दस मेद भी कहे हैं जो इस प्रकार हैं । इस अनादि संसारमें स्वच्छन्द विचरण करनेवाले जीवके मन वचन और कायकी प्रवृत्तिविशेषसे संचित पापोंकी शुद्धि कैसे हो ऐसा विचारना अपायविचय धर्मध्यान है । अथवा मिथ्यादर्शन, मिथ्याज्ञान और मिथ्याचारित्रमें फंसे हुए जीवोंका कैसे उद्धार हो ऐसा विचार करते रहना अपायविचय धर्मध्यान है । मेरे मन वचन और कायकी शुभ प्रवृत्ति कैसे हो ऐसा विचार करना अथवा दर्शनमोहनीयके उदयके कारण Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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