Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 520
________________ ४०१ गा० ५१] - ३. संसाराणुवेक्खातत्तो णीसरिदूणं जायदि तिरिएसु बहु-वियप्पेसु । तत्थ वि पावदि दुक्खं गम्भे वि य छेयणादीयं ॥ ४०॥ तिरिएहिँ खजमाणो दुट्ठ-मणुस्सेहिँ हम्ममाणो वि। सवत्थ वि संतट्ठो भय-दुक्खं विसहदे भीमं ॥ ४१ ॥ अण्णोण्णं खजंता तिरिया पावंति दारुणं दुक्खं । माया वि जत्थ भैक्खदि अण्णो को तत्थ रक्खेदि ॥ ४२ ॥ तिव-तिसाएँ तिसिदो तिव-विभुक्खाइ भुक्खिदो संतो। तिवं पावदि दुक्खं उयर-हुयासेण डझंतो ॥ ४३ ॥ एवं बहुप्पयारं दुक्खं विसहेदि तिरिय-जोणीसु । तत्तो णीसरिभ्रूणं लद्धि-अँपुण्णो णरो होदि ॥ ४४ ॥ अह गम्भे वि य जायदि तत्थ वि णिवडीकयंग-पचंगो। विसहदि तिवं दुक्खं णिग्गममाणो वि जोणीदो ॥ ४५ ॥ वालो वि पियर-चत्तो पर-उच्छिटेण वड्डदे दुहिदो। एवं जायण-सीलो गमेदि कालं महादुक्खं ॥ ४६ ॥ पावेण जणो एसो दुक्कम्म-वसेण जायदे सबो । पुणरवि करेदि पावं ण य पुण्णं को वि अजेदि ॥ ४७ ॥ विरैलो अजैदि पुण्णं सम्मादिट्ठी वएहिँ संजुत्तो। उवसम-भावे सहिदो जिंदण-गरहाहिँ संजुत्तो ॥ ४८ ॥ पुण्ण-जुदस्स वि दीसदि इट्ठ-विओयं अणि?-संजोयं । भरहो वि साहिमाणो परिजिओ लहुय-भाएण ॥ ४९॥ सयलट्ठ-विसय-जोओ वहु-पुण्णस्स वि ण सवहाँ होदि । तं पुण्णं पि ण कस्स वि सचं जेणिच्छिदं लहदि ॥ ५० ॥ कस्स वि णत्थि कलत्तं. अहव कलत्तं ण पुत्त-संपत्ती। अह तेसिं संपत्ती तह वि सेरोओ हवे देहो ॥५१॥ लमसगणीसरिऊणं। २ ब तिरिइसु। ३म भयचक्कं । ४ लमसग अण्णुण्णं । ५ग भिक्खदियण्णो। ६ब तिसाइ। ७ग उवर। ८लमसग हुयासेहि। ९ लमसग णिसरिऊणं। १.ग लद्धियपुण्णो। ११ब सवंगो। १२ ब णिग्गयमाणो। १३ व उच्च?ण । .१४ बम विरला। १५ब अजहि। १६ ब सम्माइट्ठी। १७ ब संयुत्ता। १८ लमसग दीसइ। १९ ब सयलिट्रविसंजोउ। २० लसग सव्वदो, म सम्वदा। २१ ब जो णिच्छिदं । २२ बस सरोवो। कार्तिके० ५१ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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