Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 545
________________ ४२६ - कत्तिगेयाणुप्पेक्खा [गा० ३२५रयणाण महा-रयणं सवं-जोयाण उत्तमं जोयं । रिद्धीणं महा-रिद्धी सम्मत्तं सब-सिद्धियरं ॥ ३२५ ॥ सम्मत्त-गुण-पहाणो देविंद-रिंद-वंदिओ होदि । चत्त-ओ वि य पावदि सग्ग-सुहं उत्तमं विविहं ॥ ३२६ ॥ सम्माइट्ठी जीवो दुग्गदि-हे, ण बंधदे कम्मं । जं बहु-भवेसु बद्धं दुक्कम्मं तं पि गोसेदि ॥ ३२७ ॥ बहु-तस-समण्णिदं जं मजं मंसादि णिदिदं दछ । जो ण य सेवदि णियदं सो दंसण-सावओ होदि ॥ ३२८ ॥ जो दिढ-चित्तो कीरदि एवं पि वयं णियाण-परिहीणो। वेरग्ग-भाविय-मणो सो वि य दंसण-गुणो होदि ॥ ३२९ ॥ पंचाणुवय-धारी गुण-वय-सिक्खा-वएंहिँ संजुत्तो। दिढ-चित्तो सम-जुत्तो णाणी वय-सावओ होदि ॥ ३३०॥ जो वावरेई सदओ अप्पाण-समं परं पि मण्णंतो। जिंदण-गरहण-जुत्तो परिहरमाणो महारंभे ॥ ३३१॥ तस-घादं जो ण करदि मण-वय-काएहि णेव कारयदि । कुवंतं पि ण इच्छदि पढम-वयं जायदे तस्स ॥ ३३२ ॥ हिंसा-वयणं ण वयदि कक्कस-वयणं पि जो ण भासेदि। णिहर-वयणं पि तहा ण भासदे गुज्झ-वयणं पि ॥ ३३३ ॥ हिद-मिद-वयणं भासदि संतोस-करं तु सव-जीवाणं । धम्म-पयासण-वयणं अणुवदी होदि सो बिदिओ ॥ ३३४ ॥ जो बहु-मुंलं वत्थु अप्पय-मुल्लेण णेव गिण्हेदि । वीसरियं पि ण गिण्हदि लाहे "थोवे वि तूसेदि ॥ ३३५ ॥ जो पर-दवं ण हरदि माया-लोहेण कोह-माणेण । दिढ-चित्तो सुद्ध-मई अणुबई सो हवे तिदिओ ॥ ३३६ ॥ ब सव्वं (?), लसग सव्व, म सव्वे। २ ब रिद्विण । ३ लमसग वयो। ४ व दुग्गइ। ५ गतं पणासेति। ६ ब अविरइसम्माइट्टी। वहुतस इत्यादि। ७ लमसग दिढचित्तो जो कुम्वदि । द बदसणप्रतिमा। पंचा इत्यादि। ९स वयेहिं। १० ग वावरइ (वावारइ?)। ११ ग महारंभो। १२ ग कायेहिं णेय करयदि। १३ म हयदि, ग हविदि, ल हवदि। १४ ब मोल्लं। १५ अप्पय इति पाठः पुस्तकान्तरे दृष्टः, बलमसग अप्पमुल्लेण। १६ सग थूवे । १७ स अणुन्वदी। - Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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