Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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-गा० ३७०]
- १२. धम्माणुवेक्खातिविहे पत्तम्हि सया सैद्धाइ-गुणेहि संजुदो णाणी । दाणं जो देदि सयं णव-दाण-विहीहि संजुत्तो ॥ ३६० ॥ सिक्खा-वयं च तिदियं तस्स हवे सर्व-सिद्धि-सोक्खयरं । दाणं चउविहं पि य संवे दाणाण सारयरं ॥ ३६१ ॥ भोयण-Nणं सोक्खं ओसह-दाणेण सत्थ-दाणेणं । जीवाण अभय-दाणं सुदुल्लहं सव-दाणेसु ॥ ३६२ ॥ भोयण-दाणे दिण्ण तिणि वि दाणाणि होति. दिण्णाणि । भुक्ख-तिसाए वाही दिणे दिणे होंति देहीणं ॥ ३६३ ॥ भोयण-बलेण साहू सत्थं सेवेदि" रत्ति-दिवसं पि । भोयण-दाणे दिण्णे पाणा वि य रक्खिया 'होति ॥ ३६४ ॥ इह-पर-लोय-णिरीहो दाणं जो देदि परम-भत्तीए । रयणत्तएँ सुंठविदो संघो सयलो हवे तेण ॥ ३६५ ॥ उत्तम-पत्त-विसेसे उत्तम-भत्तीऍ उत्तमं दाणं । एय-दिणे वि य दिण्णं" इंद-सुहं उत्तमं देदि ॥ ३६६ ॥ पुव-पमाण-कैंदाणं सब-दिसीणं पुणो वि संवरणं । इंदिय-विसयाण तहा पुणो वि जो कुणदि संवरणं ॥ ३६७ ॥ वासादि-कय-पमाणं "दिणे दिणे लोह-काम-सैमणटुं । सावज-वजणटं तस्स चउत्थं वयं होदि ॥ ३६८ ॥ बारस-एहिँ जुत्तो सल्लिहणं जो कुणेदि उवसंतो। सो सुर-सोक्खं पाविय कमेण सोक्खं परं लहदि ॥ ३६९ ॥ एक पि वयं विमलं सहिट्ठी जैइ कुणेदि दिढ-चित्तो। तो विविह-रिद्धि-जुत्तं इंदत्तं पौवए णियमा ॥ ३७० ॥
१ल पत्तन्हि, बम पत्तम्मि । २ब सद्धाई। ३ लमस तइयं, ग तईयं। ४ब सम्वसोख = क्ख] सिद्धियरं । ५ ब सव्वे दाणाणि [ सव्वं दाणाण]। ६ ब दाणं [ दाणे ], लमसग दाणेण । ७ ब दाणेण सत्यदाणाणं, दाणेण ससत्थदाणं च। ८ लमसग दाणाणं। ९ ब दाणाइ (इं?) हुंति दिण्णाइ । १०ब दिणि दिणि हुंति जीवाणं । ११ लमसग सेवदि रत्तिदिवहं (स सेवंदि ?)। १२ ब हुंति । १३ ब
"लसग रयणत्तये। १५ ब सुट्टविदो (१)। १६म विसेसो। १७ग दिणे । १८ब होदि। १९ब दाणं । पुव्व इत्यादि। २० ब कयाणं। २१ ब तह (?)। २२ ब दिणि दिणि (?)। २३ लमसग समणत्थं । २४ लमग वयहि । २५ लमग जो सल्लेहणं (स सल्लेहण) करेदि, ब सल्लेहणं (?)। २६ब सुक्खं । २७ ब मोक्ख (?)। २८ ब जो करदि, लग जइ कुणदि, म कुणेदि, स वि जइ कुणदि । २९ लग पावइ । ३० ब वयट्राणं ॥ जो इत्यादि।
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