Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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४३३
- गा०४१५]
- १२. धम्माणुवेक्खाजो ण वि जादि वियारं तरुणियण-कंडक्ख-बाण-विद्धो वि । सो चेव सूर-सूरो रण-सूरो णो हवे सूरो ॥ ४०४ ॥ एसो दह-प्पयारो धम्मो दह-लक्खणो हवे णियमा। अण्णो ण हवदि धम्मो हिंसा सुहुाँ वि जत्थत्थि ॥ ४०५ ॥ हिंसारंभो ण सुहो देव-णिमित्तं गुरूण कज्जेसु।। हिंसा पावं ति मदो दया-पहाणो जदो धम्मो ॥ ४०६ ॥ देव-गुरूण णिमित्तं हिंसा-सहिदो विहोदि जदि धम्मो। हिंसा-रहिदो धम्मो इदि जिण-वयणं हवे अलियं ॥ ४०७ ॥ इदि एसो जिण-धम्मो अलद्ध-पुत्वो अंणाइ-काले वि । मिच्छत्त-संजुदाणं जीवाणं लद्धि-हीणाणं ॥ ४०८ ॥ एदे दह-प्पयारा पावं-कम्मस्स णासया भणिया। पुण्णस्स य संजणया पर पुण्णत्थं ण कायवा ॥ ४०९ ॥ पुण्णं पि जो समिच्छदि संसारो तेण ईहिदो होदि । पुण्णं सुंगई-हेदु" पुण्ण-खएणेव णिवाणं ॥ ४१०॥ जो अहिलसेदि पुण्णं सकसाओ विसय-सोच-तण्हाए । दूरे तस्स विसोही विसोहि-मूलाणि पुण्णाणि ॥ ४११ ॥ पुण्णासाएँ" ण पुण्णं जदो णिरीहस्स पुण्ण-संपत्ती। इय जाणिऊण जइणो पुण्णे वि में आयरं कुणह ॥ ४१२ ॥ पुण्णं बंधदि जीवो मंद-कसाएहि परिणदो संतो। तम्हा मंद-कसाया हेॐ पुण्णस्स ण हि वंछा ॥ ४१३ ॥ किं जीव-दया धम्मो जेणे हिंसा वि होदि किं धम्मो । इच्चेवमादि-संका तदकरणं जाण णिस्संका ॥ ४१४ ॥ दय-भावो वि य धम्मो हिंसा-भावो" ण भण्णदे धम्मो ।
इदि संदेहीभावो णिस्संका णिम्मला होदि ॥ ४१५ ॥ १बवि जाह। ग बि जाति । २ब तरुणिकडक्खेण बाण । ३ब हवइ। ४ब सुहमा । ५ लग हिसारंभो वि जो हवे धम्मो। ६ मस(?) होदि जदि, ब होइ जइ। लमसग हिंसाररहिमओ (उ!)। ८ब अणाय, म अणीइ । ९ सर्वत्र पाव-कम्मस्स, [पावं कम्मस्स] । १.म सुग्गा, गगइहे। "लमसग हेउ (उं)। १२ लमसग खयेण। १३ ब सुक्ख । १४ ब पुण्णासए (?)। १५म होदि । १६ ब मुणिणो। १७ म ण। १८ ब कुणइ । १९ ग जीउं (ओ?)। २० म हेउं । २१बग जणे। २२ लम(सग भावे। २३ ग संदेहोऽभावो।
कार्तिके. ५५
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