Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal
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४३२
- कत्तिगेयाणुप्पैक्खा
[गा० ३९९ जो रयणत्तय-जुत्तो खमादि-भावेहि परिणदो णिचं । सवत्थ बि.मज्झत्थो सो साहू भण्णदे धम्मो ॥ ३९२ ॥ सो चेव दह-पयारो खमादि-भावेहिँ सुप्पसिद्धेहिं । ते पुणु भणिज्जमाणा मुणियबा परम-भत्तीए ॥ ३९३ ॥ कोहेण जो ण तप्पदि सुर-णर-तिरिएहिँ कीरमाणे वि। उवसग्गे वि रउहे तस्स खमा णिम्मला होदि ॥ ३९४ ॥ उत्तम-णाण-पहाणो उत्तम-तवयरण-करण-सीलो वि। अप्पाणं जो हीलदि मद्दव-रयणं भये तस्स ॥ ३९५ ॥ जो चिंतेइ ण वंकं णे कुणदि वंकं ण जंपदे वंकं । ण य गोवदि णिय-दोसं अजव-धम्मो हवे तस्स ॥ ३९६ ॥ सम-संतोस-जलेणं जो धोवदि तिव-लोह-मल-पुंजं । भोयण-गिद्धि-विहीणो तस्स सउच्चं हवे विमलं ॥ ३९७ ॥ जिण-वयणमेव भासदि तं पाले, असकमाणो वि। ववहारेण वि अलियं ण वेददि जो सञ्च-चाई सो ॥ ३९८ ॥ जो जीय-रक्षण-परो गैमणागमणादि-साध-कज्जेसें । तण-छेदं" पि ण इच्छदि संजम-धम्मो हवे तस्स ॥ ३९९ ॥ इह-पर-लोय-सुहाणं णिरवेक्खो जो करेदि सम-भावो । विविहं काय-किलेसं" तव-धम्मो णिम्मलो तस्स ॥ ४००॥ "जो चयदि मिट्ठ-भोजं उपयरणं राय-दोस-संजणयं । वैसदिं ममत्त-हेदुं चाय-गुणो सो हवे तसे ॥ ४०१॥ ति-विहेण जो विवजदि चेयणमियरं च सबहा संगं । लोय-यवहार-विरदो णिग्गंथत्तं हवे तस्स ॥ ४०२ ॥ जो परिहरेदि संगं महिलाणं णे पस्सदे रूवं ।
काम-कहादि-णिरीहो" णव-विह-बंभ" हवे तस्स ॥ ४०३ ॥ १ब भावेण। २ लमसग सुक्ख सारहिं। ३ स होहि (ही?)। ४ व हवे। ५ लसग एणदिमा १ लमसग जंपए। ७ ग तिठ (?) [ = तृष्णा]। ८ लमसग तस्स सुचित्तं हथे। ९ब जो ण चददि। १. ब 'गमणाइ । ११ लमसग कम्मेसु। १२ ब तिणण्यं । १३ ल (मसी) ग संयमभाउ (भो),बसंजम्म। १४लग कलेसं। १५ स-पुस्तके एषा गाथा नास्ति । १६म विसयविसमत्त।
म सुभो (खो?)। १८ मस विवहार, ग चे (?) वहार। १९ ग ण च। २०ल (स)ग णियत्तो, मणिमत्तो। २१ लमसग वहा बंभं ।
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