Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 528
________________ ४०९ गा० १३९ ] - १०. लोगाणुवेक्खापत्तेया वि य दुविहा णिगोद-सहिदा तहेव रहिया य । दुविहा होंति' तसा वि य वि-ति-चउरक्खा तहेव पंचक्खा ॥ १२८ ॥' पंचक्खा वि य तिविहा जल-थल-आयास-गामिणो तिरिया। पत्तेयं ते दुविहा मणेण जुत्ता अजुत्ता य ॥ १२९ ॥ ते वि पुणो वि य दुविहा गब्भज-जम्मा तहेव संमुच्छा। भोग-भुवा गम्भ-भुवा थलयर-णहँ-गामिणो सपणी ॥ १३०॥ अट्ठ वि गन्भज दुविहा तिविहा संमुच्छिणो वि तेवीसा। इदि पणसीदी भेया सबेसि होति तिरियाणं ॥ १३१ ॥ अजव-मिलेच्छं-खंडे भोग-महीK वि कुभोग-भूमीसु। मणुया हवंति दुविहा णिबित्ति-अपुण्णगा पुण्णा ॥ १३२ ॥ संमुच्छिया मणुस्सा अजव-खंडेसु होति णियमेण ।। ते पुण लैंद्धि-अपुण्णा णारय-देवा वि ते दुविहा ॥ १३३ ॥" आहार-सरीरिंदिय-णिस्सासुस्सास-भास-मणसाणं । परिणइ-वावारेसु य जाओ छ चेवें सत्तीओ ॥ १३४ ॥ तस्सेव कारणाणं पुग्गल-खंधाण जा हु णिप्पत्ती । सा पजत्ती भैण्णदि छब्भेया जिणवरिंदेहिं ॥ १३५ ॥ पजत्तिं गिण्हंतो मणु-पज्जत्तिं ण जाव समणोदि। ता णिवत्ति-अपुण्णो मण-पुण्णो भण्णदे पुण्णो ॥ १३६ ॥ उस्सासट्ठारसमे भागे जो मरदि ण य समाणेदि । एक्को वि य पजत्ती लैद्धि-अपुण्णो हवे सो दु ॥ १३७ ॥ लद्धियपुण्णे पुण्णं पजत्ती एयक्ख-वियल-सण्णीणं । चदु पण छक्कं कमसो पजत्तीएँ वियाणेह ॥ १३८ ॥ मण-बयण-काय-इंदिय-णिस्सासुस्सास-आउ-उदयाणं । जेसिं जोए जम्मदि मरदि विओगम्मि ते वि दह पाणा ॥ १३९ ॥ १ब सहिया। २ ब हुंति । ३ साहारणाणि इत्यादि गाथा (१२६) ब-पुस्तकेऽत्र 'आहारुउसास्सआउकाऊणि' इति पाठान्तरेण पुनरुक्ता दृश्यते । ४ म हुत्ता अहुत्ता य। ५ ब भुया। ६ स नभ। ७ बग समु। ८ स भेदा । ९स मिलछे, ग मलेछ। १० ग भोगभूमीसु। ११ मसग मणुआ। १२ ब हुति । १३ ब लद्ध। १४ ब एव अट्टाणउदी भेया। १५ मग सरीरेंदिय। १६ स हास। १७ ब मणुसाणं। १८ब परिणवह। १९ ब छम्वेव। २० ग भणिदि छभेया। २१ म समाणेदि। २२ बमस मणु-। २३ लग भण्णते। २४ ब एक्का (?), लमसग एका । २५ मग लद्धियपुणो। २६ ब पज्जतीम (1)। २७ लमग आउरुदयाणं, स आउसहियाणं। २८ बग मरिदि। कार्तिके. ५२ Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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