Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 541
________________ ४२२ -कत्तिगेयाणुप्पेक्खा [गा० २८१को ण वसो इत्थि-जणे कस्स ण मयणेण खंडियं माणं । को इंदिएहिँ ण जिओ को ण कसाएहि संतत्तो ॥ २८१ ॥ सो ण वसो इत्थिं-जणे सो ण जिओ इंदिएहि मोहेणं । जो ण य गिहदि गंथं अब्भंतर-बाहिरं सर्व ॥ २८२ ॥ एवं लोय-सहावं जो झायदि उवसमेक-सब्भावो । सो खविय कम्म-पुंजे तिल्लोय-सिहामणी होदि ॥ २८३ ॥' ११. बोहिदुलहाणुवेक्खा जीवो अणंत-कालं वसइ णिगोएसु आइ-परिहीणो। तत्तो णिस्सरिदूणं पुढवी-कायाँदिओ होदि ॥ २८४ ॥ तत्थ वि असंख-कालं बायर-सुहुमेसु कुणई परियत्तं । चिंतामणि व दुलहं तसत्तणं लहँदि कटेण ॥ २८५॥ वियलिदिएसु जायदि तत्थ वि अच्छेदि पुव-कोडीओ। तत्तो णिसरिदूणं कहमवि पंचिंदिओ" होदि ॥ २८६ ॥ सो वि मणेण विहीणो ण य अप्पाणं परं पि जाणेदि । अह मण-सहिदो होदि हु तह वि तिरिक्खो हवे रुद्दो ॥ २८७ ॥ सो तिव-असुह-लेसो णेरये णिवंडेइ दुक्खदे भीमे । तत्थ वि दुक्खं भुंजदि सारीरं माणसं पउरं ॥ २८८ ॥ तत्तो णिस्सरिदूणं पुणरवि तिरिएसु जायदे पायो। तत्थ वि दुक्खमणंतं विसहदि जीवो अणेयविहं ॥ २८९ ॥ रयणं चउप्पहे पिव मणुयत्तं सुट्ट दुल्लहं लहिये । मिच्छो हवेइ जीवो तत्थ वि पावं समजेदि ॥ २९० ॥ १ब न। २ ग कस्से। ३ ब न। ४ म एत्थ-जणे, स एछि जणे, ग एत्थ जए। ५ ब मोहेहि । ६ग गिण्णदि गंथं अभितर। ७ ब उबसमेक, म उवसमिक। ८ लमसग तस्सेव। ९ब इति लोकानुप्रेक्षा समाप्तः॥१०॥ जीवो इत्यादि। १०लसमग णीसरिऊणं......कायादियो। ११ल कणय (कणियो)। १२ ब लहह। १३ ब णिसरि', लमसग णीसरिऊणं । १४ ब कहमिवि। १५ ब पंचिदियो, लम पंचेंदियो, ब पंचंदियो। १६ स वि।१७ब सहिदो (?), लमग सहिओ। १८लमग तिरक्खो। १९ बलमग णरयं, स गरये (?)[णरयम्मि पडेह]। २० म णिवडेदि । २१ लमसग णीसरिऊणं । २२ ब पावो (?), लसग पावं, म पाउं। २३ ब चउप्पहेवा। २४ ब लहिवि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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