Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 521
________________ ४०२ - कत्तिगेयाणुष्पेक्खा [गा० ५२अंह जीरोओ देहो तो धण-धण्णाण णेय संपत्ती । अह धण-धण्णं होदि हु तो मरणं झत्ति ढुक्केदि ॥ ५२ ॥ कस्स वि दुटु-कलंत्तं कस्स वि दुवसण-वसणिओ पुत्तो। कस्स वि अरि-सम-बंधू कस्स वि दुहिदा वि दुचरियाँ ॥ ५३॥ मरदि सुपुत्तो कस्स वि कस्स वि महिला विणस्संदे इट्ठा । कस्स वि अग्गि-पलित्तं गिहं कुडंबं च डझेइ ॥ ५४ ॥ एवं मणुय-गदीए णाणा-दुक्खाइँ विसहमाणो वि। ण वि धम्मे कुणदि मई आरंभ णेय परिचयइ ॥ ५५ ॥ संधणो वि होदि णिधणो धण-हीणो तह य ईसरो होदि । राया वि होदि भिचो मिचो वि य होदि णरणाहो ॥ ५६ ॥ सत्तू वि होदि मित्तो मित्तो वि य जायदे तहा सत्तू । कम्म-विवाग-वसादो एसो संसार-सम्भावो ॥ ५७ ॥ अह कह वि हवदि देवो तस्स वि जाएदि माणसं दुक्खं । दह्ण महड्डीणं देवाणं रिद्धि-संपत्ती ॥ ५८ ॥ इट्ठ-विओगं"-दुक्खं होदि महड्डीण विसय-तण्हादो। विसय-वसादो सुक्खं जेसि तेर्सि कुदो तित्ती ॥ ५९ ॥ सारीरिय-दुक्खादो माणस-दुक्खं हवेइ अइ-पउरं । माणस-दुक्ख-जुदस्स हिं विसया वि दुहावहा हुंति ॥ ६ ॥ देवाणं पि य सुक्खं मणहर-विसएहिँ कीरदे जदि हि । विसंय-वसं जं सुक्खं दुक्खस्स वि कारणं तं पि ॥६१॥ एवं सुट्ठ-असारे संसारे दुक्ख-सायरे घोरे। किं कत्थ वि अत्थि सुहं वियारमाणं सुणिच्छयदो ॥ ६२ ॥ दुक्किय-कम्म-वसादो राया वि य असुइ-कीडओ होदि । तत्थेव य कुणइ रई पेक्खंह मोहस्स माहप्पं ॥ ६३ ॥ म अहव णी । २ ब निरोओ। ३ ब णेव। ४ लमसग दुक्केइ । ५म कलत्ता। ६ग दुश्चरिआ। ७ लमसग कस्स वि मरदि सुपुत्तो। ८ ब विणिस्सदे। ९ ब कुणइ रई आ'। १० गाथाके भारंभमें, ब किं च इत्थ संसारे स्वरूपं । ११ बमस विवाय। १२ लमसग य। १३ लमसग महवीणं । १४ ब विउयं, म विभोगे। १५ ब मड्ढीण, लमसग महदीण। १६ ब वि। १७ लमगस कीरए । १८ब विसइ। १९ग विसं। २०ब पेक्खह, लमग पिक्खह । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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