Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 508
________________ -४८७] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३८९ सन् दूरीकृतकिट्टधातुपाषाणसंजातसार्धषोडशवर्णिकासुवर्णरूपसदृशः परिप्राप्तात्मस्वरूपः एकसमयेन परमनिर्वाणं गच्छति । अत्रान्त्यशुक्लध्यानद्वये यद्यपि चिन्तानिरोधो नास्ति तथापि ध्यानं करोतीत्युपचर्यते । कस्मात् । ध्यानकृत्यस्य योगापहारस्याघातिघातस्योपचारनिमित्तस्य सद्भावात् । यस्मात् साक्षात्कृतसमस्तवस्तुस्वरूपेऽर्हति भगवति न किंचिद्ध्येयं स्मृतिविषयं वर्तते। तत्र ययानं तत् असमकर्मणां समकरणनिमित्तम् । तदेवं निर्वाणसुखं तत्सुखं मोहक्षयात् १, दर्शनं दर्शनावरणक्षयात् २ शानं ज्ञानावरणक्षयात ३.अनन्तवीर्यम् अन्तरायक्षयात् ४, जन्ममरणक्षयः आयुःक्षयात् ५, अमूर्तत्वं नामक्षयात् ६.नीचोच्चकुलक्षयः गोत्रक्षयात् ७, इन्द्रियजनिलसुखक्षयः वेद्यक्षयात् ८ । इति तत्त्वार्थसूत्रोक्तं निरूपितम् । तथा चारित्रसारे ध्यानविचारः । शुक्रध्यानं द्विविधं पृथक्त्ववितर्कवीचारमेकत्ववितकावीचारमिति शुक्लं, सूक्ष्मक्रियाप्रतिपातिसमुच्छिन्नक्रियानिवृत्तीनि परमशुक्रमिति । तद्विविधं बाह्यमाध्यात्मिकमिति । गात्रनेत्रपरिस्पन्दविरहितं जम्भजम्भोद्गारादिवर्जितम् उच्छिन्नप्राणापानचारत्वम् अपराजितत्वं बाह्यं तदनुमेयं परेषाम् आत्मानं खसंवेद्यमाध्यात्मिकं तदुच्यते। पृथक्त्वं नानात्वं, वितर्को द्वादशाङ्गश्रुतज्ञानं, वीचारो अर्थव्यअनयोगसंक्रान्तिः, व्यञ्जनमभिधानं, तद्विषयोऽर्थः, मनोवाकायलक्षणा योगाः, अन्योन्यतः परिवर्तनं संक्रान्तिः । पृथक्त्वेन वितर्कस्य अर्थव्यञ्जनयोगेषु संक्रान्तिः वीचारो यस्मिन्नस्तीति तत्पृथक्त्ववितर्कवीचार प्रथम शुक्लम् । अनादिसंभूतदीर्घसंसारस्थितिसागरपार जिगमिषुर्मुमुक्षुः स्वभावविजृम्भितपुरुषाकारसामर्थ्यात् द्रव्यपरमाणु भावपरमाणु वा एकमवलम्ब्य संहृताशेषचित्तविक्षेपः महासंवरसंवृतः कर्मप्रकृतीनां स्थित्यनुभागौ ह्रासयन् उपशमयन् क्षपयंश्च परमबहुकर्मनिर्जरस्त्रिषु योगेषु अन्यतमस्मिन्वर्तमानः एकस्य द्रव्यस्य गुणं वा पर्यायं वा कर्म बहुनयगहननिलीनं पृथग्बलेनान्तर्मुहूर्तकालं ध्यायति, ततः परमार्थान्तरं संक्रामति। अथवा अस्यैवार्थस्य गुण वा पर्याय वा संक्रामति पूर्वयोगात् योगान्तरं व्यञ्जनात् व्यञ्जनान्तरं संक्रामतीति अर्थादर्थान्तरं गुणागुणान्तरं पर्यायपर्यायान्तरेषु योगत्रयसंक्रमणेन तस्यैव ध्यानस्य द्वाचत्वारिंशद्भङ्गा भवन्ति । तद्यथा । षण्णां जीवादिपदार्थानां क्रमेण ज्ञानावरणगतिस्थितिवर्तनावगाहनादयो गुणास्तेषां विकल्पाः पर्यायाः । अर्थादन्योऽर्थः अर्थान्तर गुणादन्यो ज्ञान भी होता है । यदि ऐसा अपवादकथन नहीं है तो 'अपने रचे हुए दो तीन पदों को घोघते हुए शिवभूति केवली होगया' भगवती आराधनाका यह कथन कैसे घटित हो सकता है ? शायद कोई कहें कि पांच समिति और तीन गुप्ति रूप तो द्रव्य श्रुतका ज्ञान होता है किन्तु भावश्रुतका सम्पूर्ण ज्ञान होता है । किन्तु ऐसा कहना भी ठीक नहीं है क्यों कि यदि पाँच समिति और तीन गुप्तिके प्रतिपादक द्रव्यश्रुतको जानता है तो 'मा रूसह मा दूसह' इस एक पदको क्या नहीं जानता ! अतः आठ प्रवचनमाताप्रमाणही भावश्रुत है द्रव्यश्रुत कुछ भी नहीं है । यह व्याख्यान हमारा कल्पित नहीं है किन्तु चारित्रसार आदि ग्रन्थोंमें भी ऐसाही कथन है । यथा-'अन्तर्मुहूर्तके पश्चातही जिन्हें केवलज्ञान उत्पन्न होजाता है ऐसे क्षीणकषाय गुणस्थानवर्तियोंको निम्रन्थ कहते हैं । उनको उत्कृष्टसे चौदह पूर्वरूपी श्रुतका ज्ञान होता है और जघन्यसे पाँच समिति और तीन गुप्तिमात्रका ज्ञान होता है । कुछ लोग यह शंका करते हैं कि मोक्षके लिये ध्यान किया जाता है किन्तु आजकल मोक्ष नहीं होता, अतः ध्यान करना निष्फल है। किन्तु ऐसी आशंका ठीक नहीं है क्यों कि आजकल भी परम्परासे मोक्ष हो सकता है । जिसका खुलासा यह है-शुद्धात्माकी भावनाके बलसे संसारकी स्थितिको कम करके जीव वर्गमें जाते हैं । और वहाँसे आकर रनत्रयकी भावनाको प्राप्त करके मुक्त हो जाते हैं । भरत चक्रवर्ती, सगर चक्रवर्ती, रामचन्द्र, पाण्डव वगैरह जो मी मुक्त हुए वे भी पूर्वभवमें मेद और अमेदरूप रत्नत्रयकी भावनासे संसारकी स्थितिको कम करकेही पीछेसे मुक्त हुए। अतः सबको उसी भवसे मोक्ष होता है ऐसा नियम नहीं है । इस तरह उक्त प्रकारसे थोडेसे श्रुतज्ञानसे मी ध्यान होता है ॥ ध्यानके दो भेद भी हैं-सविकल्पक और निर्विकल्पक । धर्मध्यान सविकल्पक होता है Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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