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स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा
[ गा० ४८७
मनोयोगं बादरकाययोगं च परिहृत्य सूक्ष्मकाययोगे स्थित्वा सुक्ष्म क्रियाप्रतिपातिध्यानं समाश्रयति । यदा त्वन्तर्मुहूर्तशेषायुःस्थितिः ततोऽधिकस्थितिवेद्यनामगोत्रकर्मत्रयो भगवान् भवति तदात्मोपयोगातिशयव्यापार विशेषः यथाख्यातचारित्रसहायो महासंवरसहितः शीघ्रतर कर्मपरिपाचनपरः सर्वकर्म रजः समुड्डायनसमर्थस्वभावः दण्डकपाटप्रतर लोकपूरणानि निजात्मप्रदेश सर णलक्षणानि चतुर्भिः समयैः समुपहरति, ततः समानविहितस्थित्यायुर्वेद्यनामगोत्र कर्मचतुष्कः पूर्वशरीरप्रमाणो भूत्वा सूक्ष्मकाययोगावलम्बनेन सूक्ष्मक्रिया प्रतिपातिध्यानं ध्यायति । कथं दण्डकादिसमुद्धात इति चेदुच्यते । " काउस्सग्गेण ठिओ बारस अंगुलपमाणसमव । वादूणं लोगुदयं दंडसमुग्धादमेगसमयम्हि ॥ अह उवइट्ठो संतो मूलसरीरप्पमाणदो तिगुणं बाहलं कुणइ जिणो दण्डसमुग्धादमेगसमयम्हि ॥ दण्डपमाणं बहलं उदयं च कवाडणाम बिदिय म्हि । समये दक्खिणवामे आदपदेससप्पणं कुणइ ॥ पूव्वमुहो होदि जिणो दक्खिणउत्तरगदो कवाडो हु । उत्तरमुहो दु जादो पुव्वावरगदो कवाडो हु ॥ वादतयं वज्जित्ता लोगे आदप्पसप्पण कुणइ । तदिये समयम्हि जिणो पदरसमुग्धादणामो सो ॥ तत्तो चउत्थसमये वादत्तयसहिदलोगसंपुष्णो । होंति हु आदपदेसो सो चेव लोगपूरणो णाम ॥ जस्स ण दु आउसरिसाणि णामगोदाणि वेयणीयं वा । सो कुणदि समुग्धायं णियमेण जिणो ण संदेहो || छम्मासाउगसेसे उप्पण्णं जस्स केवलं गाणं । ते णियमा समुग्धायं सेसे हवति भणिज्जा ॥ पढमे दंडं कुणइ बिदिये य कवाडयं तहा समये । तिदिये पयरं चैव य चउत्थए लोयपूरणयं ॥ विवरं पंचमसमये जोईमत्थाणयं तदो छ । सत्तमए य कवाडं संवरइ तदो अट्टमे दंडं । दंडजुगे ओरालं कवाडंजुगले य तस्स मिस्सं तु । पदरे य लोयपूरे कम्मेव य होदि णायव्वो ।” दण्डकद्वयकाले औदारिकशरीरपर्याप्तिः । कपाटयुगले औदारिकमिश्रः । प्रतरयो लोकपूरणे च कार्मणः । तत्र अनाहार इति । तदनन्तरं व्युपरतक्रियानिवर्तिनामधेयं समुच्छिन्नक्रियानिवृत्यपरनामकं ध्यानं प्रारभ्यते । समुच्छिन्नः प्राणापानप्रचारः सर्वका यवाग्मनोयोगसर्वप्रदेशपरिस्पन्दक्रियाव्यापारश्च यस्मिन् तत्समुच्छ्न्निक्रियानिवर्तिध्यानमुच्यते तस्मिन् समुच्छिन्नक्रियानिवर्तिनि ध्याने सर्वास्रवबन्धनिरोधं करोति सर्वशेषकर्मचतुष्टयविध्वंसनं विदधाति । स भगवान् अयोगिकेवली तस्मिन् काले ध्यानाग्निनिर्दग्धकर्ममलकलङ्कबन्धनः
यह आपत्ति करते हैं कि आजकल शुक्ल ध्यान नहीं हो सकता; क्यों कि एक तो उत्तम संहननका अभाव है, दूसरे दस या चौदह पूर्वोका ज्ञान नहीं है । इसका समाधान यह है कि इस कालमें शुक्ल ध्यान तो नहीं होता किन्तु धर्मध्यान होता है । आचार्य कुन्दकुन्दने मोक्षप्राभृतमें कहा भी है- 'भरतक्षेत्र में पंचमकालमें ज्ञानी पुरुषके धर्मध्यान होता है वह धर्मध्यान आत्मभावना में तन्मय साधुके होता है । जो ऐसा नहीं मानता वह अज्ञानी है | आज भी आत्मा मन वचन कायको शुद्ध करके ध्यानकरनेसे इन्द्रपद और लौकान्तिक देवत्वको प्राप्त करता है तथा वहाँसे च्युत होकर मोक्ष जाता है ॥' तवानुशासनमें भी कहा है- 'जिन भगवानने आज कल यहाँपर शुक्लध्यानका निषेध किया है । तथा श्रेणीसे पूर्ववर्ती जीवोंके धर्मध्यान कहा है ॥' तत्त्वार्थ सूत्र में सम्यग्दृष्टि, देशसंयत, प्रमत्तसंयत और अप्रमत्तसंयत इन चारोंको धर्मध्यानका खामी कहा है || धर्मध्यानके दो भेद हैं- मुख्य और औपचारिक । अप्रमत्त गुणस्थान में मुख्य धर्मध्यान होता है और शेष तीन गुणस्थानों में औपचारिक धर्मध्यान होता है । और जो कहा जाता है कि अपूर्वकरण गुणस्थानसे नीचेके गुणस्थानोंमें उत्तम संहनन होने पर ही धर्मध्यान होता है सो आदिके तीन उत्तम संहननोंके अभावमें भी अन्तके तीन संहननोंके होते हुए धर्मध्यान होता है । जैसा कि तत्त्वानुशासनमें कहा है-आगममें जो यह कहा है कि वज्र शरीरवालेके ध्यान होता है सो यह कथन उपशम और क्षपकश्रेणिकी अपेक्षासे है । अतः नीचेके गुणस्थानोंमें ध्यानका निषेध नहीं मानना चाहिये || और यह जो कहा है कि दश या चौदह पूर्वीका ज्ञान होनेसे ध्यान होता है यह भी उत्सर्ग कथन है । अपवाद कथन की अपेक्षा पाँच समिति और तीन गुप्ति इन आठ प्रवचन माताओंका ज्ञान होनेसे भी ध्यान होता है, और केवल
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