Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 506
________________ -४८७] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३८७ भवति ३ । व्यूपरतक्रियानिवृत्तिशुक्रध्यानमेकमपि योगमवलम्ब्यात्मप्रदेशचलनं भवति ४ । वितर्कः श्रुतं. विशेषणं विशिष्ट वा तर्कण सम्यगृहनं वितर्कः श्रुतं श्रुतज्ञानम् । वितर्क इति कोऽर्थः । श्रुतज्ञानमित्यर्थः। प्रथमं शुक्रध्यानं द्वितीयं च शक्रध्यानं श्रुतज्ञानबलेन ध्यायते इत्यर्थः। 'वीचारोऽर्थव्यञ्जनयोगसंक्रान्तिः।' अर्थश्च व्यञ्जनं च योगसंक्रान्तिः अर्थश्च व्यञ्जनं च योगश्च अर्थव्यानयोगास्तेष संक्रान्तिः परिवर्तनं वीचारो भवतीति । अर्थो ध्येयो ध्यानीयो ध्यातव्यः पदार्थः द्रव्यं पर्यायो वा १ । व्यसनं वचनं शब्द इति २। योग: कायवाग्मनःकर्म ३ । संक्रान्तिः परिवर्तनम् । तेनायमर्थः, द्रव्यं ध्यायति द्रव्यं त्यक्त्वा पर्यायं ध्यायति, पर्यायं च परिहत्य पुनः द्रव्यं ध्यायति इत्येवं पुनः पुनः संक्रमणमर्थसंक्रान्तिरुच्यते १ । तथा श्रुतज्ञानशब्दमवलम्च्य अन्यं श्रुतज्ञानशब्दमवलम्बते, तमपि परिहृत्यापरं श्रुतज्ञानवचनमाश्रयति। एवं पुनः पुनः श्रुतज्ञानाश्रयमाणश्व व्यजनसंक्रान्ति लभते २ । तथा काययोगं मुक्त्वा वाग्योग मनोयोग वा आश्रयति तमपि विमुच्य काययोगमागच्छति । एवं पुनः पुनः कुर्वन् योगसंक्रान्ति प्राप्नोति ३ । अर्थव्यजनयोगानां संक्रान्तिः परिवर्तनं वीचारः कथ्यते। तथाहि भव्यवरपुण्डरीकः उत्तमसंहननाविष्टः मुमुक्षुः द्रव्यपरमाणुं द्रव्यस्य सूक्ष्मत्वं भावपरमाणुं पर्यायस्य सूक्ष्मत्वं वा ध्यायन् समारोपितश्रुतज्ञानसामर्थ्यः सन् अर्थव्यजने कायवचसी द्वे च पृथक्त्वेन संकामता मनसा असमर्थबालकोद्यमवत् अतीक्ष्णेनापि कुठारादिना चिरावृक्षं छिन्दन् इव मोहप्रकृतीरुपशमयन् क्षपयन् वा मुनिः पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानं भजते । स एव पृथक्त्ववितर्कवीचारध्यानभाग मुनिः समूलतूलं मोहनीय कर्म निर्दिधक्षन् मोहकारणभूतसूक्ष्मलोमेन सह निर्दग्धुमिच्छन भस्मसात् कर्तुकामः अनन्तगुणविशुद्धिकं योगविशेष समाश्रित्य प्रचुरतराणां ज्ञानावरणसहकारिभूतानां प्रकृतीनां बन्धनिरोधस्थितिहासौ च कुर्वन् सन् श्रुतज्ञानोपयोगः सन् परिहृतार्थव्यञ्जनसंकान्तिः सन् अप्रचलितचेताः क्षीण कषायगुणस्थाने स्थितः सन वैद्यमणिरिव निःकलङ्कः निरुपलेपः सन् पुनरधस्तादनिवर्तमानः एकत्ववितर्कावीचार ध्यान ध्यात्वा निर्दग्धवातिकर्मेन्धनो भगवांस्तीर्थकरदेवः सामान्यानगारकेवली वा गणधरकेवली वा प्रकर्षण देशोनां पूर्वकोटीं भूमण्डले विहरति स भगवान् यदा अन्तर्मुहूर्तशेषायुर्भवति अन्तर्मुहूर्तस्थितिवेद्यनामगोत्रश्च भवति तदा सर्व वाम्योगं अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छास, प्रशस्त और अप्रशस्त विहायोगति, अपर्याप्त, प्रत्येक शरीर, स्थिर, अस्थिर, शुभ, अशुभ, दुर्भग, दुःस्वर, सुखर, अनादेय, अयशःकीर्ति, निर्माण, नीचगोत्र, ये बहात्तर प्रकृतियाँ व्युपरतक्रियानिवृत्ति शुक्लध्यानके बलसे क्षय होती हैं। और अन्तिम समयमें कोई एक वेदनीय, मनुष्यायु, मनुष्यगति, पञ्चेन्द्रिय जाति, मनुष्यगत्यानुपूर्व्य, त्रस, बादर, पर्याप्त, सुभग, आदेय, यशःकीर्ति, तीर्थक्कर, उच्चगोत्र ये तेरह प्रकृतियाँ क्षय होती हैं ।' रविचन्द्रकृत आराधनासारमें कहा है'कर्गरूपी अटवीको जलानेवाला शुक्लध्यान कषायोंके उपशम अथवा क्षयसे उत्पन्न होता है और प्रकाशकी तरह स्वच्छ स्फटिक मणिकी ज्योतिकी तरह निश्चल होता है। उसके पृथक्त्ववितर्कवीचार आदि चार भेद हैं | चौदह पूर्वरूपी श्रुतज्ञानसम्पत्तिका आश्रय लेकर प्रथम शुक्लध्यान अर्थ, व्यंजन और योगके परिवर्तनके द्वारा होता है । तथा चौदह पूर्वरूपी श्रुत ज्ञानका वेत्ता जिसके द्वारा एक वस्तुका आश्रय लेकर परिवर्तन-रहित ध्यान करता है वह दूसरा शुक्ल ध्यान है ॥ समस्त पदार्थों और उनकी सब पर्यायोंको जाननेवाले केवली भगवान काययोगको सूक्ष्म करके तीसरे शुक्ल ध्यानको करते हैं ॥ और शीलके स्वामी अयोगकेवली भगवान् चौथे शुक्ल ध्यानको करते हैं । आर्तध्यान आदिके छै गुणस्थानोंमें होता है । रौद्रध्यान आदिके पाँच गुणस्थानोंमें होता है और धर्मध्यान असंयत सम्यग्दृष्टिको आदि लेकर चार गुणस्थानोंमें होता है । तथा अपूर्वकरण आदि गुणस्थानोंमें पुण्यपापका अभाव होनेसे विशुद्ध शुक्लध्यान होता है । उपशान्त कषायमें पहला शुक्लध्यान होता है, क्षीण कषायमें दूसरा शुक्लध्यान होता है, सयोग केवलीके तीसरा शुक्लध्यान होता है, और अयोग केवलीके चौथा शुक्लध्यान होता है । इस प्रकार चारों शुक्लध्यानोंका वर्णन समाप्त हुआ । शंका-कुछ लोग Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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