Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 512
________________ -४८८] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३९३ समयसारः, स एवाध्यात्मसारः, तदेव समतादिनिश्चलषडावश्यकखरूपं, तदेवाभेदरत्नत्रयखरूपं, तदेव वीतरागसामायिक, तदेव परमशरणोत्तममङ्गलं, तदेव केवलज्ञानोत्पत्तिकारण, तदेव सकलकर्मक्षयकारणं, सैव निश्चयचतुर्विधाराधना, सैव परमभावना, सैव शुद्धात्मभावनोत्पन्नसुखानुभूतिपरमकला, सैव दिव्यकला, तदेव परमाद्वैतं, तदेव परमामृतं, तदेव परमधर्मध्यानं, तदेव शुक्लध्यानं, तदेव रागादिविकल्पशून्यध्यानं, तदेव निष्कलध्यानं, तदेव परमस्वास्थ्य, तदेव परमवीतरागं, तदेव परमसाम्य, तदेव परममेदज्ञानं, तदेव शुद्धचिद्रूपं, स एव परमसमरसीभाव इत्यादिसमस्तरागद्वेषादिविकल्परहितपरमालादनकसुखलक्षणध्यानरूपपरमात्मस्वरूपं चिन्तनीयं स्मरणीयम् । तथा चोक्तं । “सम्मत्तं सण्णाणं सच्चारित्तं हि सत्तवो चेव । चउरो चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥ अरुहा सिद्धाइरिया उवझाया साहु पंचपरमेट्ठी। ते वि हु चिट्ठहि आदे तम्हा आदा हु मे सरणं ॥ ममत्तिं परिवज्जामि णिम्ममत्तिमुवट्ठिदो । आलंबणं च मे आदा अवसेसाइँ वोसरे ॥ आदा खु मज्झ णाणे आदा मे दसणे चरित्ते य । आदा पच्चक्खाणे आदा मे संवरे जोगे॥ एगो मे सस्सदो अप्पा णाणदंसणलक्षणो। सेसा मे बाहिरा भावा सव्वे संजोगलक्खणा ॥ केवलणाणसहावो केवलदसणसहावसुहमइओ । केवलसत्तिसहावो सोहं इदि चितये णाणी ॥णियभावं णवि मुञ्चइ परभावं व गिण्हए केइ । जाणदि पस्सदि सव्वं सोहं इदि चिंतए णाणी ॥” इत्यादिसारपदानि गृहीत्वा ध्यानं वात्मभावनं कर्तव्यमिति । अथार्तादिचतुर्विधध्यानफलमाह । 'आर्तध्यानविकल्पा नयन्ति तिर्यग्गतिं तु देहभृतः । रौद्रध्यानविभेदा नरकगति तीव्रपापरतान् ॥ धर्मध्यानविशेषा देवगतिं प्रापयन्त्यनेकविधाम् । शुक्लध्यानोत्कर्षाः सिद्धगतिं शाश्वतात्मसुखाम् ॥' इति ॥ इत्यनुप्रेक्षाटीकायां ध्यानव्याख्यानं समाप्तम् ॥ ४८७ ॥ अथ तपास्युपसंहरति एसो बारस-भेओ उग्ग-तवो जो चरेदि उवजुत्तो। सो खवदि' कम्म-पुंजं मुत्ति-सुहं अक्खयं लहदि ॥४८८॥ [छाया-एतत् द्वादशमेदम् उग्रतपः यः चरति उपयुक्तः । स क्षपयति कर्मपुजं मुक्तिसुखम् अक्षयं लभते ॥] यो मुमुक्षुः भव्यवरपुण्डरीकः उग्रतपः उग्रोग्रतपोविधानं चतुर्थषष्ठमअष्टमदशमद्वादशपक्षमासोपवासादिवर्षपर्यन्तं चरति आचरति विदधाति । कथंभूतम् । एतत्पूर्वोक्तकथितं द्वादशमेदम् । 'अनशनावमोदर्यवृत्तिपरिसंख्यानरसपरित्यागविविक्तशय्यासनकायक्लेशा बाह्यं तपः'। प्रायश्चित्तविनयवैयावृत्त्यवाध्यायव्युत्सर्गशुक्लध्यानमिति अभ्यन्तरं तपः । इति द्वादशप्रकारम् आचरति । योऽसौ कथंभूतः । उपयुक्तः सन् उपयोगवान् सन् उद्यमपरो वा स साधुः मुमुक्षुः मुक्तिसुखं लभते खात्मोपलब्धिसुखं निर्वाणसुखं प्राप्नोति । कीदृक्षम् । अक्षयम् अविनश्वर शाश्वतम् । किं कृत्वा । कर्मपुङ्ख क्षिस्वा ज्ञानावरणादिमूलोत्तरोत्तरप्रकृतिसमूहं क्षयं नीत्वा मोक्षसुखं प्राप्नोति ॥ ४८८ ॥ अथ कर्ता खकृत्यं व्यनक्ति-- और किसी भी परभावको ग्रहण नहीं करता। मैं सबको केवल जानता और देखता हूँ॥ इस प्रकारके सारभूत वचनोंको ग्रहण करके अपनी आत्माका ध्यान करना चाहिये । शास्त्रकारोंने चारों ध्यानोंका फल इस प्रकार बतलाया है। आर्तध्यानके विकल्पसे प्राणी तिर्यञ्चगतिमें जन्म लेते हैं। रौद्रध्यानके तीव्र पापसे नरकगतिमें जाते हैं । धर्मध्यानके करनेसे अनेक प्रकारकी देवगतिको प्राप्त करते हैं, और उत्कृष्ट शुक्ल ध्यानसे सिद्धगतिको प्राप्त करते हैं जहाँ शाश्वत आत्म सुख है ॥ इस प्रकार ध्यानका वर्णन समाप्त हुआ ॥ ४८७ ॥ अब तपके कथन का उपसंहार करते हैं । अर्थ-जो मन लगाकर इस बारह प्रकारके उग्र तपको करता है वह समस्त कर्मोको नष्ट करके उत्तम मुक्तिसुख को पाता है ॥ भावार्थ-तपसे नवीन कर्मोंका आना भी रुकता है और पूर्वसंचित कर्मोंका नाश भी होता है । और ये दोनों ही मोक्षके कारण हैं । अतः जो मुमुक्षु मुनिव्रत धारण करके अनशन, अवमौदर्य, वृत्तिपरिसंख्यान, रसपरित्याग, विविक्त शय्यासन और कायक्लेश इन छः बाह्यतपोंको तथा प्रायश्चित्त, विनय, वैयावृत्य, खाध्याय, व्युत्सर्ग और ध्यान इन छअभ्यन्तर तपोंको मन लगाकर करता है वह कोको नष्ट करके मुक्तिको प्राप्त करता है। मुक्तिमें ही बाधारहित अविनाशी आत्मसुख मिलता है ॥४८८॥ १०मस खविय, ग खविइ । २ ल म स ग लहा। कार्तिके. ५० Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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