Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 502
________________ -४८६ ] १२. धर्मानुप्रेक्षा ३८३ मुहूर्त कालस्य अन्तिमेद्विचरमसमये एकत्वं ध्यायति, एकत्वं वितर्कवीचाराख्यं द्वितीयं शुकं ध्यायति चिन्तयति स्मरति तज्यानबलेन असंख्यातगुणश्रेणिकर्मनिर्जरां करोति । द्वितीयशुक्रुध्यानबलेन उपान्तसमये निद्राप्रचलाद्वयं क्षपयति । चरमसमये ज्ञानावरणीयपञ्चकं ५ चक्षुरचक्षुरवधिकेवलदर्शनावरणं चतुष्कं ४ दानलाभभोगोपभोगवीर्यान्तरायपञ्चकं ५ एवं चतुर्दशप्रकृतीः क्षपयति । ज्ञानदर्शनावरणीयान्तरायरूपघातित्रयं द्वितीयशुक्लध्यानेन क्षपयतीत्यर्थः । कथंभूतः क्षीणकषायः । निर्ग्रन्थराट् खखरूपे विलीनः स्वस्य आत्मनः स्वरूपे शुद्धबुद्धचिदानन्दशुद्धचिद्रूपे विलीनः लयं गतः, एकत्वं प्राप्त इत्यर्थः । तथा हि द्रव्यसंग्रहटीकायाम्, निजशुद्धात्मद्रव्ये वा निर्विकारात्मसुखसंवित्तिपर्याये वा निरुपाधिस्वसंवेदनगुणे वा यत्रैकस्मिन् प्रवृत्तं तत्रैव वितर्कसंज्ञेन स्वसंवित्तिलक्षणभावश्रुतबलेन स्थिरीभूय वीचारं द्रव्यगुणपर्यायपरावर्तनं करोति यत् तदेकत्ववितर्कावीचारसंज्ञं क्षीणकषायगुणस्थानसंभवं द्वितीयशुक्लध्यानं भण्यते । तेनैव केवलज्ञानोत्पत्तिरिति । तथा च ज्ञानार्णवे । 'अपृथक्त्वमवीचारं सवितर्क च योगिनः । एकत्वमेकयोगस्य जायतेऽत्यन्तनिर्मलम् ॥ द्रव्यं चैकं गुणं चैकं पर्याय चैकमश्रमः । चिन्तयत्येकयोगेन यत्रैकत्वं तदुच्यते ॥' तथा । 'एकं द्रव्यमथाणुं वा पर्यायं चिन्तयेद्यतिः । योगैकेन यदक्षीणं तदेकत्वमुदीरितम् ॥ अस्मिंस्तु निश्चलभ्यानहुताशे प्रविजृम्भिते । विलीयन्ते क्षणादेव घातिकर्माणि योगिनः ॥' इति । इति द्वितीयशुक्लध्यानम् ॥ ४८५ ॥ केवल-णा - सहावी हुमे जोगम्हि' संठिओ काए । जंझायदि सजोगि - जिणो तं तिदियं सुहुम-किरियं च ॥ ४८६ ॥ [ छाया-केवलज्ञानस्वभावः सूक्ष्मे योगे संस्थितः काये । यत् ध्यायति सयोगिजिनः तत् तृतीयं सूक्ष्मक्रियं च ॥ ] सयोगिजिनः सयोगिकेवलिभट्टारकः अष्टमहाप्रातिहार्यचतुस्त्रिंशदतिशय समवसरणादिविभूतिमण्डितः परमौदारिक देहस्तीर्थकरदेवः, स्वयोग्यगन्धकुट्या दिविभूतिविराजमान इतरकेवली वा उत्कृष्टेन देशोनपूर्वकोटिकालं विहरति सयोगिभट्टारकः । स यदा 1 1 मुनि क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती होता है । कषायोंके क्षीण होजानेसे वही सच्चा निर्ग्रन्थ होता है । उसका अन्तरंग स्फटिकमणिके पात्र में रखे हुए स्वच्छ जलके समान विशुद्ध होता है । क्षीणकषाय गुणस्थानका काल अन्तर्मुहूर्त है । उसके उपान्त्य समयमें मुनि एकत्व वितर्क नामक दूसरे शुक्लध्यानको ध्याता है । उस ध्यानके बलसे उसके प्रतिसमय असंख्यातगुणी असंख्यातगुणी कर्मनिर्जरा होती है । उसीके बलसे ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अन्तराय नामक तीन घातिकका विनाश होता है । द्रव्यसंग्रहकी टीका में एकत्व वितर्क शुक्लध्यानका वर्णन करते हुए लिखा है'अपने शुद्ध आत्मद्रव्यमें अथवा निर्विकार आत्मसुखानुभूतिरूप पर्यायमें अथवा उपाधिरहित स्वसंवेदन गुणमें प्रवृत्त हुआ और स्वसंवेदनलक्षणरूप भावश्रुतके बलसे, जिसका नाम वितर्क है, स्थिर हुआ जो ध्यान वीचारसे रहित होता है उसे एकत्व वितर्क अवीचार कहते हैं । इसी ध्यानसे केवल - ज्ञानकी उत्पत्ति होती है ।" ज्ञानार्णव में भी कहा है- 'किसी एक योगवाले मुनिके पृथक्त्व रहित, वीचार रहित किन्तु वितर्क सहित अत्यन्त निर्मल एकत्व वितर्क नामक शुक्लध्यान होता है | जिस ध्यानमें योगी बिना किसी खेदके एक योगसे एक द्रव्यका अथवा एक अणुका अथवा एक पर्यायका चिन्तन करता है उसको एकत्व वितर्क शुक्लध्यान कहते हैं | इस अत्यन्त निर्मल एकत्व वितर्क शुक्लध्यान रूपी अग्नि प्रकट होने पर ध्यानीके घातियाकर्म क्षणमात्रमें विलीन हो जाते हैं ॥' इस प्रकार दूसरे शुक्लध्यानका वर्णन समाप्त हुआ ।। ४८५ ॥ अर्थ - केवलज्ञानी सयोगिजिन सूक्ष्म काययोगमें . स्थित होकर जो ध्यान करते हैं वह सूक्ष्मक्रिय नामक तीसरा शुक्ल ध्यान है ॥ भावार्थ - आठ महाप्रातिहार्य १ ब सुहमे योगम्मि । २ म स तदियं ( ? ) । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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