Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 501
________________ ૨૮૨ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा [गा०४८४ १ नरकगतिप्रायोग्यानुपूर्वी १ तिर्यग्गत्यानुपूर्वी १ आतपोद्योतस्थावर १ सूक्ष्म १ साधारण १ नामिकानां षोडशानां कर्मप्रकृतीनां पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यानबलेन प्रक्षयं नयति । द्वितीयभागे अप्रत्याख्यानप्रत्याख्यानकषायाष्टकं ८ प्रथमशुक्लध्यानपरिणतः क्षयं नयति । तृतीयभागे तद्बलेन नपुंसकवेदं क्षपयति । चतुर्थे भागे तबलेन स्त्रीवेद क्षपयति । पञ्चमे भागे तद्बलेन नोकषायषटू क्षपयति ६ । षष्ठे भागे तद्बलेन पुंवेदं क्षपयति १ । सप्तमे भागे तद्बलेन संज्वलनक्रोधं क्षपयति १। अष्टमे भागे तद्वलेन संज्वलनमायां क्षपयति । एवं षट्त्रिंशत्प्रकृतीः ३६ अनिवृत्तिकरणक्षपकत्रेण्यारूढः क्षपकः पृथक्त्ववितर्कवीचारशुक्लध्यानबलेन क्षपयतीत्यर्थः । ततः सूक्ष्मसांपरायगुणस्थानक्षपकोण्यारूढः क्षपको भूत्वा सोऽपि सूक्ष्मपरायात्मनः चरमसमये किट्टिकागतं सर्वलोभसंज्वलनं प्रथमं शुक्रध्यानबलेन क्षपयति । ततो अनन्तरं क्षीणकषायः क्षपको भवति । सोऽपि क्षीणकषायक्षपकश्रेण्यारूढः अन्तर्मुहूर्त गमयित्वा आत्मनो द्विचरमसमये एकत्ववितर्कावीचारद्वितीयशुलध्यानबलेन निद्राप्रचलासंज्ञके द्वे प्रकृती क्षपयति २। ततो अनन्तरं चरमसमये एकत्ववितर्कवीचारशुक्रध्यानपरिणतः क्षपकः पञ्चज्ञानावरणचतुर्दर्शनावरणपञ्चान्तरायाख्याश्चतुर्दशप्रकृतीः १४ क्षपयति । क्षीणकषायक्षपकः द्वितीयशुकध्यानपरिणतः सन् षोडशप्रकृतीः क्षपयतीत्यर्थः । षष्टिकर्मप्रकृतिषु क्षीणेषु सयोगिजिनो भवति ॥४८४ ॥ णीसेस-मोह-विलए खीण-कसाए' य अंतिमे काले । स-सरूवम्मि' णिलीणो सुकं झाएदि एयत्तं ॥४८५॥ [छाया-निःशेषमोहविलये क्षीणकषाये च अन्तिमे काले । स्वस्वरूपे निलीनः शुक्लं ध्यायति एकत्वम् ॥] निःशेषमोहविलये सति निःशेषस्य समप्रस्य मिथ्यात्वत्रयानन्तानुबन्ध्यादिषोडशकषायहास्यादिनवनोकषायस्य अष्टाविंशतिभेदमिन्नस्य मोहनीयकर्मणः विलये नष्टे क्षीणे सति, क्षीणकषायः क्षीणाः क्षयं नीताः कषायाः सर्वे यस्य येन वा स क्षीणकषायः क्षीणकषायगुणस्थानवर्ती संयतः परमार्थतो निर्ग्रन्थः स्फटिकभाजनगतप्रसन्नतोयसमविशुद्धान्तरङ्गः अन्तिमकाले खकीयान्त वेदका क्षय करता है । चौथे भागमें स्त्रीवेदका क्षय करता है । पाँचवे भागमें छः नोकषायोंका क्षय करता है। छठे भागमें पुरुषवेदका क्षय करता है । सातवें भागमें संज्वलन क्रोधका क्षय करता है । आठवें भागमें संज्वलन मानका क्षय करता है । नौवें भागमें संज्वलन मायाका क्षपण करता है । इस तरह क्षपक अनिवृत्तिकरणगुणस्थानमें पृथक्त्व वितर्क वीचार शुक्लध्यानके बलसे छत्तीस कर्म प्रकृतियोंका क्षय करता है । उसके बाद क्षपक सूक्ष्मसाम्पराय गुणस्थानमें जाकर प्रथम शुक्लध्यानके बलसे उसके अन्तिम समयमें समस्त लोभ संज्वलनका क्षय कर देता है | उसके बाद क्षपक क्षीणकषाय गुणस्थानवर्ती होता है । वहाँ अन्तर्मुहूर्त काल बिताकर क्षीणकषाय गुणस्थानके उपान्त्य समयमें एकत्ववितर्क नामक दूसरे शुक्लध्यानके बलसे निद्रा और प्रचलाका क्षय करता है । और अन्तिम समयमें पाँच ज्ञानावरण, चार दर्शनावरण और पाँच अन्तराय इस प्रकार चौदह प्रकृतियोंका क्षय करता है । इस तरह दूसरे शुक्लध्यानसे सोलह कर्मप्रकृतियोंका क्षय करता है । ७+३६+१+१६=६० प्रकृतियोंका क्षय होने पर वह सयोग केवली जिन हो जाता है ॥ ४८४ ॥ अर्थ-समस्त मोहनीय कर्मका नाश होनेपर क्षीणकषाय गुणस्थानके अन्तिमकालमें अपने स्वरूपमें लीन हुआ आत्मा एकत्व वितर्क नामक दूसरे शुक्लध्यानको ध्याता है ॥ भावार्थ-मोहनीय कर्मकी मिथ्यात्व आदि तीन, अनन्तानुबन्धी आदि सोलह कषाय और हास्य आदि नौ नोकषाय, इन अठाईस प्रकृतियोंका नाश हो जाने पर १लमसग णिस्सेस विलये। २ लगाम कसाओ (उ!), स कसाई। ३ स सरूवम्हि । ४ कगायेहि । Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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