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३७६ स्वामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा०४८२याति वह्निः शनैः शनैः ॥” इति आग्नेयी धारणा ।२। “अथापूर्य दिशाकाशं संचरन्तं महाबलम् । महावेगं स्मरेत् ध्यानी समीरणं निरन्तरम् ॥ तद्रजः शीघ्रमुद्धय तेन प्रबलवायुना। ततः स्थिरीकृताभ्यासः पवनं शान्तिमानयेत् ॥” इति मारुती 1३। "वारुण्यां जलदवातं संवर्षन्तं नभस्तलात् । स्थूलधारावजैविद्यदर्जनैः सह चिन्तयेत् ॥ ततोऽर्धेन्दुसमं कान्तं पुरं वरुणलाञ्छितम् । स्मरेत्सुधापयःपूरैः प्लावयन्तं नभोंगणम् ॥ तेन ध्यानोत्थनीरेण दिव्येन प्रबलेन सः। प्रक्षालयेच्च निःशेषं तद्भस्म कायसंभवम् ॥ इति वारुणी । ४ । ततः योगी खात्मानं सर्वज्ञसदृशं सप्तधातुविनिमुक्तं चन्द्रकोटिकान्तिसमं सिंहासनारूढं दिव्यातिशयसंयुतं कल्याणमहिमोपेतं देववृन्दैरचितं कर्ममलकलङ्करहितं खवरूपं चिन्तयेत् । "तेओ पुरुसायारो झायन्वो णियसरीरगन्भत्थो । सियकिरणविष्फुरतो अप्पा परमप्पयसरूवो ॥ णियणाहिकमलमज्झे परिट्ठियं विष्फुरंतरवितेयं । झाएह अरुहरूवं झाणं तं मुणह पिंडत्थं ॥ झायह णियकरमो . भालयले हिययकंठदेसम्हि । जिणरूवं रवितेयं पिंडत्थं मुणह झाणम्हि ॥" "मस्तके वदने कण्ठे हृदये नाभिमण्डले। ध्यायेच्चन्द्रकलाकारे योगी प्रत्येकमम्बुजम् ॥” सिद्धसादृश्यं गतसिक्थमूषिकागर्भसमानं स्वात्मानं ध्यानी ध्यायेत् सिद्धसुखादिकं लभते । इति पिण्डस्थध्यानं समाप्तम् ॥ अथ रूपस्थध्यानमुच्यते। ध्यानी समवसरणस्थं जिनेन्द्रचन्द्र चिन्तयेत् । “मानस्तम्भाः सरांसि प्रविमलजलसत्खातिका पुष्पवाटी, प्राकारो नाट्यशालाद्वितयमुपवनं वेदिकान्तर्ध्वजाद्याः । ध्यान करे । फिर उस कमलके सोलह पत्रोंपर 'अ, आ, इ, ई, उ, ऊ, ऋ, ऋ, ल, लु, ए, ऐ,
ओ, औ, अं, अ' इन सोलह अक्षरोंका ध्यान करे। और उस कमलकी कर्णिकापर 'अहँ' (है) इस महामंत्रका चिन्तन करे । इसके पश्चात् उस महामंत्रके रेफसे निकलती हुई धूमकी शिखाका चिन्तवन करे। उसके पश्चात् उसमें से निकलते हुए स्फुलिंगोंकी पंक्तिका चिन्तवन करे । फिर उसमेंसे निकलती हुई ज्वालाकी लपटोंका चिन्तन करे । फिर क्रमसे बढ़ते हुए उस ज्वालाके समूहसे अपने हृदयमें स्थित कमलको जलता हुआ चिन्तन करे । वह हृदयमें स्थित कमल आठ पत्रोंका हो, उसका मुख नीचेकी ओर हो और उन आठ पत्रोंपर आठ कर्म स्थित हों । उस कमलको नाभिमें स्थित कमलकी कर्णिकापर विराजमान हैं' से उठती हुई प्रबल अग्नि निरन्तर जला रही है ऐसा चिन्तन करे। उस कमलके दग्ध होनेके पश्चात् शरीरके बाहर त्रिकोण अग्निका चिन्तन करे। वह अग्नि बीजाक्षर 'ए' से व्याप्त हो और अन्तमें खस्तिकसे चिह्नित हो । इस प्रकार वह धगधग करती हुई लपटोंके समूहसे देदीप्यमान अग्निमंडल नाभिमें स्थित कमल और शरीरको जलाकर राख कर देता है। फिर कुछ जलानेको न होनेसे वह अग्निमण्डल धीरे धीरे स्वयं शान्त होजाता है । यह दूसरी आग्नेय धारणाका स्वरूप कहते है। आगे मारुती धारणाका स्वरूप कहते हैं। ध्यानी पुरुष आकाशमें विचरण करते हुए महावेगवाले बलवान वायुमण्डलका चिन्तन करे । फिर यह चिन्तन करे कि उस शरीर वगैरहकी भस्मको उस वायुमण्डलने उड़ा दिया फिर उस वायुको स्थिर रूप चिन्तवन करके शान्त कर दे । यह मारुती धारणाका स्वरूप है । आगे वारुणी धारणाका वर्णन करते हैं । फिर वह ध्यानी पुरुष आकाशसे गर्जन तर्जनके साथ बरसते हुए मेघोंका चिन्तन करे। फिर अर्ध चन्द्रमाके आकार मनोहर और जलके प्रवाहसे आकाश रूपी आगनको वहाते हुए वरुण मण्डलका चिन्तवन करे । उस दिव्य ध्यानसे उत्पन्न हुए जलसे शरीरके जलनेसे उत्पन्न हुई राखको धोता है ऐसा चिन्तन करे । यह वारुणी धारणा है। अब तत्त्ववती धारणाको कहते हैं । उसके बाद ध्यानी पुरुष अपनेको सर्वज्ञके समान, सप्तधातुरहित, पूर्णचन्द्रमाके समान प्रभावाला, सिंहासनपर विराजमान, दिव्य अतिशयोंसे युक्त, कल्याणकोंकी महिमा सहित, देवोंसे पूजित, और कर्मरूपी
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