________________
खामिकार्तिकेयानुप्रेक्षा
[गा०२१७राशिवत् भिन्नभिन्न एव। तथाहि, षद्रव्याणां वर्तनाकारणं वर्तयिता प्रवर्तनलक्षणमुख्यकालः । वर्तनागुणो द्रव्यनिचये एव । तथा सति काला रेणैव सर्वव्याणि वर्तन्ते खखपर्यायैः परिणमन्ति । ननु कालस्यैव परिणामक्रियापरवापरत्वोपकारो जीवपुद्गलयोः दृश्यते । धर्माद्यमूर्तद्रव्येषु कथमिति चेदुक्तं च । “धम्माधम्मादीणं अगुरुलहुगं तु छहिं विवड्डीहिं । हाणीहिं विवढूतो हायंतो वहदे जम्हा ॥" यतः धर्माधर्मादीनामगुरुलधुगुणाविभागप्रतिच्छेदाः खद्रव्यत्वस्य निमित्तभूतशक्तिविशेषाः षड्बृद्धिभिर्वधमानाः षड्हानिभिश्च हीयमानाः परिणमन्ति । ततः कारणात् तत्रापि मुख्यकालस्यैव कारणत्वात् इति । तथा च । “लोगागासपदेसे एक्कक्के जे ठिया हु एकेका । रयणाणं रासी इव ते कालाणू मुणेयव्वा ॥" एकैकलोकाकाशप्रदेशे ये एकैके भूत्वा रत्नानां राशिरिव भिन्नभिन्नव्यक्त्या तिष्ठन्ति ते काला
न्तव्या। धर्माधर्माकाशा एकैक एव अखण्डद्रव्यत्वात् । कालाणवो लोकप्रदेशमात्रा इति ॥ २१६॥ यथा कालाणूनां परिणमनशक्तिरस्ति तथा सर्वेषां द्रव्याणां खभावभूता परिणामशक्तिरस्तीत्यावेदयति
णिय-णिय-परिणामाणं णिय-णिय-दव्वं पि कारणं होदि ।
अण्णं बाहिर-दव्वं णिमित्त-मित्तं वियाणेह ॥ २१७ ॥ [छाया-निजनिजपरिणामानां निजनिजद्रव्यम् अपि कारणं भवति । अन्यत् बाह्यद्रव्यं निमित्तमात्र विजानीत ॥] निजनिजपरिणामानां खकीयखकीयपर्यायाणां जीवानां क्रोधमानमायालोभरागद्वेषादिपर्यायाणां नरनारकादिपर्यायाणां च पुद्गलानाम् औदारिकादिशरीरादीनां घणुकत्र्यणुकादिस्कन्धपर्यन्तानां परिणामानां पर्यायाणां च । निजनिजद्रव्यमपि, न केवलं कालद्रव्यम् इत्यपिशब्दार्थः, कारणं हेतुर्भवति, उपादानकारणं स्यात् । उक्तं च । “ण य परिणमदि होती है एक खभावपर्याय और एक विभावपर्याय । बिना पर निमित्तके जो खतः पर्याय होती है उसे खभावपर्याय कहते हैं । जैसे जीवकी खभावपर्याय अनन्तचतुष्टय वगैरह और पुद्गलकी स्वभावपर्याय रूप, रस गन्ध वगैरह । स्वभावपर्याय सभी द्रव्योंमें होती है। किन्तु विभाव पर्याय जीव और पुद्गल द्रव्यमें ही होती है क्योंकि निमित्त मिलनेपर इन दोनों द्रव्योंमें विभावरूप परिणमन होता है । क्रोध, मान, माया और लोभ वगैरह तथा नर, नारक, तिर्यञ्च, और देव वगैरह जीवकी विभावपर्याय हैं और व्यणुक त्र्यणुक आदि स्कन्धरूप पुद्गलकी विभावपर्याय है । इन पर्यायोंके होनेमें जो सहकारी कारण है वह निश्चयकाल है । आशय यह है कि सब द्रव्योंमें वर्तना नामक गुण पाया जाता है किन्तु काल द्रव्यका आधार पाकर ही सब द्रव्य अपनी अपनी पर्यायरूप परिणमन करते हैं । शंका-काल द्रव्यके परिणाम, क्रिया, परत्व, अपरत्व आदि उपकार जीव और पुद्गलमें ही देखे जाते हैं । धर्म आदि अमूर्त द्रव्योंमें ये उपकार कैसे होते हैं ? समाधान-धर्म आदि अमूर्त द्रव्योंमें अगुरुलघु नामक जो गुण पाये जाते हैं इन गुणोंके अविभागी प्रतिच्छेदोंमें छः प्रकारकी हानि और छ प्रकारकी वृद्धि होती रहती है । उसमें मी निश्चयकाल ही कारण है । अतः सब द्रव्योंमें होनेवाले परिणमनमें जो सहायक है वही निश्चयकाल है। वह निश्चयकाल अणुरूप है और उसकी संख्या असंख्यात है; क्योंकि लोकाकाशके प्रत्येक प्रदेशपर एक एक कालाणु रत्नोंकी राशिकी तरह अलग अलग स्थित है । सारांश यह है कि धर्म, अधर्म और आकाश द्रव्य तो एक एक ही है, किन्तु कालद्रव्य लोकाकाशके प्रदेशोंकी संख्याके बराबर असंख्यात है ॥ २१६ ॥ आगे कहते हैं कि सभी द्रव्योंमें खभावसे ही परिणमन करनेकी शक्ति है । अर्थ-अपने अपने परिणामोंका उपादान कारण अपना द्रव्य ही होता है । अन्य जो बाह्य द्रव्य है वह तो निमित्त मात्र है ॥ भावार्थ-कारण दो प्रकारका होता है एक उपादान
१ मणिमित्त-मत्तं (१)। २ब बियाणेहि (?)।
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org