Book Title: Kartikeyanupreksha
Author(s): Swami Kumar, A N Upadhye, Kailashchandra Shastri
Publisher: Paramshrut Prabhavak Mandal

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Page 369
________________ २५० स्वामिकार्त्तिकेयानुप्रेक्षा [ गा० ३४४ अनर्थः निरर्थकः, न विद्यते अर्थः प्रयोजनं यत्र स अनर्थः अनर्थक्रियाकारी यावत् तथानर्थकं पर्यटन विषयोपसेवनम् । अनर्थदण्डः स कः । यः अर्थः क्रिमपि कार्यम् इष्टानिष्टधनधान्यशत्रुनाशादिकं न साधयति न निर्मापयति, पुनः यः अर्थः शस्त्राभिविषप्रमुखः नित्यं सदा पापं दुरितं करोति स अनर्थः पञ्चप्रकारः पञ्चभेदः पञ्चविधः । अपि पुनः स पञ्चप्रकारः विविधः विविधप्रकारः अनेकविधः, एकस्मिन्नेकस्मिन्ननर्थदण्डे बहवः अनर्थाः सन्तीयभिप्रायः । अनर्थदण्डः पञ्चप्रकारः । अपध्यान १ पापोपदेश २ प्रमांदचरित ३ हिंसाप्रदान ४ दुःश्रुति ५ भेदात् ॥ ३४३ ॥ तत्रापध्यानलक्षणं कथ्यते पर-दोसाण वि गहणं' पर लच्छीणं समीहणं जं च । परइत्थी - अवलोओ' पर - कलहालोयणं पढमं ॥ ३४४ ॥ I [ छाया - परदोषाणाम् अपि ग्रहणं परलक्ष्मीनां समीहनं यत् च । पररूयत्रलोकः परकलहालोकनं प्रथमम् ॥ ] पञ्चप्रकारेष्वनर्थदण्डेषु प्रथमम् अनर्थदण्डं प्रथयते । तं प्रथमम् अपध्यानाख्यम् अनर्थदण्डं जानीहि । तं कम् । यच्च परदोषाणां ग्रहणं परेषाम् अन्येषां पुंसां दोषाः अविनयादिलक्षणाः तेषां ग्रहणम् अङ्गीकारः स्वीकारः परजनानां दोषस्वीकारः, उपलक्षणत्वात् स्वकीयगुणप्रकाशनं च । च पुनः परलक्ष्मीनां परेषां लक्ष्मीनां गजवाजिरथवर्णरत्नमणिमाणिक्यवस्त्राभरणादीनां संपदानां समीनं वाञ्छा ईहाभिलाषः परधनापहरणेच्छा च, परस्त्रीणाम् आलोकः परयुक्तीनां जघनस्तनवदनादिकं रागबुद्ध्यावलोकनं तद्वाञ्छा च, परकलहालोकनं परैः अन्यैः कृतः कलहः झकटकः तस्यावलोकनं दर्शनं च वाञ्छा च, परप्राणिनां जयपराजयहननबन्धनकर्णाद्यवयवच्छेदनादिकं कथं भवेदिति मनःपरिणामप्रवर्तनम् अपध्यानं प्रथमं भवति । १ ॥ ३४४ ॥ अथ पापोपदेशाख्यं द्वितीयानर्थदण्डं व्याचष्टे दूसरे गुणवतको कहते हैं । अर्थ - जिससे अपना कुछ प्रयोजन तो सघता नहीं, और केवल पाप ही बंधता है उसे अनर्थ कहते हैं। उसके पांच भेद हैं तथा अनेक भेदभी हैं । भावार्थ - अनर्थदण्ड विरति व्रतका स्वरूप बतलाते हुये ग्रंथकारने पहले अनर्थ शब्दका अर्थ और उसके भेद बतलाये हैं। जिससे कुछ अर्थ यानी प्रयोजन सिद्ध नहीं होता वह अनर्थ है । अर्थात् जो इष्ट धनधान्यकी प्राप्ति या अनिष्ट शत्रु वगैरहका नाश आदि किसीभी कार्यको सिद्ध नहीं करता, बल्कि उल्टे पापका संचय करता है वह अनर्थ है । उसके पांच भेद हैं- अपध्यान, पापोपदेश, प्रमादाचरित, हिंसाप्रदान 1 और दुश्रुति । इस एक एक अनर्थ दण्डके भी अनेक भेद हैं, क्यों कि एक एक अनर्थ में बहुतसे अनर्थ गर्भित होते हैं ॥ ३४३ ॥ आगे उनमेंसे अपध्यानका लक्षण कहते हैं । अर्थ- परके दोषों को ग्रहण करना, परकी लक्ष्मीको चाहना, पराई स्त्रीको ताकना तथा पराई कलहको देखना प्रथम अनर्थ दण्ड है ॥ भावार्थ- पांच अनर्थदण्डोंमेंसे प्रथम अनर्थदण्डका स्वरूप बतलाते हैं । दूसरे मनुष्यों में जो दुर्गुण हैं उन्हें अपनाना, दूसरेके धनको छीननेके उपाय सोचना, रागभावसे पराई युवतियों के जघन, स्तन, मुख वगैरहकी ओर घूरना और उनसे मिलनेके उपाय सोचना, कोई लड़ता हो या मेढों की, तीतरोंकी, बढ़ेरोंकी लड़ाई होती हो तो उसमें आनन्द लेना, सब अपध्यान नामका अनर्थदण्ड है । अपध्यानका मतलब होता है- खोटा विचार करना । अतः अमुककी जय या पराजय कैसे हो, अमुकको किसी तरह फांसी हो जाये, अमुकको जेलखाना होजाये, अमुकके हाथ पैर आदि काट डाले जाये, इस प्रकार मनमें विचारना अपध्यान है । ऐसे व्यर्थके विचारोंसे १ क म दोसाणं गहणं, ( स ग्रहण, ग ग्रहणं ) । Jain Education International २ ल म सग आलोओ । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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