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-३८७1 १२. धर्मानुप्रेक्षा
२८३ माद्यर्थे पञ्चम्याः इति पञ्चमीतत्पुरुषः । स कः । यः अभ्यन्तरं ग्रन्थम् , 'मिथ्यात्ववेदहास्यादिषट्कषायचतुष्टयम् । रागद्वेषौ च संगाः स्युरन्तरङ्गाश्चतुर्दश ॥' इति चतुर्दशप्रकारपरिग्रहं परिवर्जयति । च पुनः, बाह्य ग्रन्थम् , 'क्षेत्र वास्तु धन धान्य द्विपदं च चतुःपदम् । यानं शय्यामनं कुप्यं भांडं चेति बहिर्दश ॥' इति दशभेदभिन्नपरिग्रहं परिवर्जयति त्यजति ग्रन्थं प्रश्नाति अनुबध्नाति संसारमिति ग्रन्थः परिग्रहः तं परिवर्जयति त्यजति । यः श्रावकः । कीदृक्षः। सानन्दः आनन्देन शुद्धचिद्रूपोत्थानानन्देन सुखेन वर्तमानः सानन्दः । पुनः कीदृक् । परिग्रहं पापमिति दुरितमिति मन्यमानः जानन् । तथा चोक्तं च । 'मोत्तूण वत्थमेत्तं परिग्गहं जो विवज्जए सेसं । तत्थ वि मुच्छं ण करेदि जाण सो सावओ णवमो ॥ तथा च । 'बाधेषु दशसु वस्तुषु ममत्वमुत्सृज्य निर्ममत्वरतः। स्वस्थः संतोषपरः परिचितपरिग्रहाद्विरतः ॥' 'बाह्यग्रन्थविहीना दरिद्रमनुजाः स्वपापतः सन्ति । पुनरभ्यन्तरसंगल्यागी लोकेऽतिदुर्लभो जीवः ॥' क्रोधादिकषायागामातेरौद्रयोः हिंसादिपञ्चपापानां भवस्य च जन्मभूमिः दूरोत्सारितधर्मशुक्लः परिग्रह इति मत्वा दशविधबाह्यपरिग्रहाद्विनिवृत्तः वस्थः संतोषपरो भवतीति ॥ ३८६ ॥
बाहिर-गंथ-विहीणा दलिद्द-मणुवा सहावदो होति।
अभंतर-गंथं पुण ण सक्कदे को वि छंडेदं ॥ ३८७ ॥ [छाया-बाह्यग्रन्थविहीनाः दरिद्रमनुजाः स्वभावतः भवन्ति । अभ्यन्तरग्रन्थं पुनः न शक्नोति कः अपि त्यक्तुम् ॥] स्वभावतः निसर्गतः पापाद्वा दरिद्रमनुष्याः निद्रव्यपुरुषाः दरिद्रिणः नरा भवन्ति । कथंभूताः । बाह्यग्रन्थविहीनाः क्षेत्र
देता है उसे निम्रन्थ( परिग्रहत्यागी ) कहते हैं | भावार्थ-जो संसारसे बाँधता है उसे ग्रन्थ अथवा परिग्रह कहते हैं। परिग्रहके दो भेद हैं-अन्तरंग और बाह्य । मिथ्यात्व एक, वेद एक, हास्य आदि छै: नोकषाय, क्रोध, मान, माया, लोभ, राग और द्वेष ये चौदह प्रकारका तो अन्तरंग परिग्रह है, और खेत, मकान, धन, धान्य, सोना, चांदी, दासी, दास, भाण्ड, सवारी ये दस प्रकारका बाह्य परिग्रह है । जो इन दोनोंही प्रकारके परिग्रहको पापका मूल मानकर त्याग देता है तथा त्याग करके मनमें सुखी होता है वही निर्ग्रन्थ अथवा परिग्रहका त्यागी है । वसुनन्दि श्रावकाचारमें भी कहा है-'जो वस्त्र मात्र परिग्रहको रखकर बाकी परिग्रहका त्याग कर देता है और उस वस्त्र मात्र परिग्रहमें भी ममत्व नहीं रखता वह नवमी प्रतिमाका धारी श्रावक है।' रत्नकरंडश्रावकाचारमें कहा है-"बाह्य दस प्रकारकी वस्तुओंमें ममत्व छोडकर जो निर्ममत्वसे प्रेम करता है वह स्वस्थ सन्तोषी श्रावक परिग्रहका त्यागी है ॥" आशय यह है कि आरम्भका त्याग कर देनेके पश्चात् श्रावक परिग्रहका त्याग करता है । वह अपने पुत्र या अन्य उत्तराधिकारीको बुलाकर उससे कहता है कि 'पुत्र, आज तक हमने इस गृहस्थाश्रमका पालन किया । अब हम इससे विरक्त होकर इसे छोडना चाहते हैं अतः अब तुम इस भारको सम्हालो और यह धन, धर्मस्थान और कुटुम्बीजनोंको अपना कर हमें इस भारसे मुक्त करो।' इस तरह पुत्रको सब भार सौंपकर वह गृहस्थ बडा हल्कापन अनुभव करता है और मनमें सुख और सन्तोष मानता है क्यों कि वह जानता है कि यह परिग्रह हिंसा आदि पापोंका मूल है, क्रोध अदि कषायोंका घर है और दुर्ध्यानका कारण है। अतः इसके रहते हुए धर्मध्यान और शुक्लध्यान नहीं हो सकते ॥ ३८६ ॥ अर्थबाह्य परिग्रहसे रहित दरिद्री मनुष्य तो खभावसे ही होते हैं । किन्तु अन्तरंग परिग्रहको छोडनेमें कोईभी समर्थ नहीं होता ।। भावार्थ-वास्तवमें परिग्रह तो ममत्व परिणाम ही है । धन धान्य वगैरहको तो इस
१. मग दलिइमणुआ (स मणुवा)। २ व इंति। ३ब को वि। ४ ब निग्रंथः । जो अणु इत्यादि ।
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